Book Title: Ahimsa Tattva Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 212
________________ १६८ अहिंसा तत्त्व दर्शन स्वस्थता, आत्म-स्थिति। अहिंसा का विवेक अहिंसा की साधना कठोर है, इसलिए उसके साधक को कष्ट-सहिष्णु होना आवश्यक है। भगवान् महावीर ने कहा-“दैहिक कष्टों को सहनशीलता पूर्वक सहने से महान् फल होता है।'' इसका यह अर्थ नहीं कि कष्ट ही कष्ट सहते रहना चाहिए। अहिंसा का सिद्धान्त है-हिंसा पर विजय पाने के लिए जितना कष्ट सहना पड़े, वह सब सहा जाए। इसी सिद्धान्त के आधार पर तपस्या का विकास हुआ। इन्द्रिय और मन को जीते बिना अहिंसा जीवन में नहीं आ सकती। इनकी विजय के लिए बाह्य वस्तुओं—विषयों का त्याग आवश्यक है। वही तपस्या है। उससे बाह्य वस्तुओं का सम्बन्ध छूट जाता है। फिर भी उनकी वासनाएँ शेष रह जाती हैं। उन्हें निर्मूल करने के लिए ध्यान है। वह भी तपस्या है। पहली बाह्य तपस्या है और दूसरी अन्तरंग । एक से बाह्य-शुद्धि होती है और दूसरी से अंतरंग शुद्धि । वस्तु-त्याग के रूप हैं : १. अनशन- खान-पान का त्याग, एक दिन के लिए या उससे अधिक । २. ऊनोदरिका: (१) खान-पान में कमी, भूख से कम खाना, कम चीजें खाना आदि (२) क्रोध आदि की कमी करना। ३. वृत्ति-संक्षेप-जीवन-निर्वाह के साधनों का संक्षेपीकरण । ४. रस-परित्याग-सुस्वादु व गरिष्ठ भोजन का त्याग या सीमाकरण । ५. काय-क्लेश-आसन आदि के द्वारा शरीर को साधना । अहिंसा की साधना में आने वाले कष्टों को सहना । ६. प्रतिसंलीनता : (१) इन्द्रियों के विषयों का त्याग । (२) क्रोध आदि का त्याग--अनुदित क्रोध का त्याग और उदित क्रोध का विफलीकरण । (३) अकुशल मन, वाणी और कर्म का निरोध; कुशल मन, वाणी और कर्म की उदीरणा । (४) विकारहेतुकमकान और आसन का त्याग । जीवन के अन्तर-शोधन की प्रक्रिया के तत्त्व ये हैं : (१) प्रायश्चित्त-किए हुए पापों की आलोचना। १. दशवैकालिक ८ : देहे दुक्खं महाफलं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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