Book Title: Ahimsa Tattva Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 213
________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन २. विनय - मन, वाणी और कर्म की नम्रता । ३. वैयावृत्त्य (सेवा) - अपनी शक्तियों का दूसरे के निश्रेयस् के लिए व्यापार । १६६ ४. स्वाध्याय-- - मुक्तिकारी विद्या का अध्ययन, मनन, चिन्तन । ५. ध्यान — मन की वृत्तियों का स्थिरीकरण । ६. व्युत्सर्ग- शरीर का स्थिरीकरण या शरीर और चेतन के भेद का ज्ञान | वस्तुओं का त्याग व्यावहारिक या स्थूल होता है, वासनाओं का त्याग आन्तरिक या सूक्ष्म । आन्तरिक शोधन के लिए विकार के बाहरी साधनों का वर्जन आवश्यक है । यह साध्य की सिद्धि नहीं है । उसकी सिद्धि, आन्तरिक वासनाएँ गहरी जड़ें जमाए हुए हैं, उनके निर्मूलन से होती है । खाद्य-विवेक खान-पान के बिना जीवन नहीं टिकता, इसलिए वह जीवन की मुख्य प्रवृत्ति है और वह हिंसक तथा अहिंसक दोनों के लिए समान है - जीवन की आवश्यकता की दृष्टि से, फल की दृष्टि से नहीं । अहिंसा की साधना देह-मुक्ति की साधना है, इसलिए उसमें मुख्य बात देह-पोषण की नहीं होती । 'अहिंसा अखण्ड रहे, देह भले छूट जाए' - अहिंसक ऐसा व्रत लिए चलता है । अहिंसा में आपद्-धर्म का कोई स्थान नहीं है । देह को टिकाए रखने की भावना मुख्य बनते ही अहिंसा गौण हो जाती है । जीवन टिका न रहे तो अहिंसा की साधना कैसे हो ? कौन करे ? इसलिए अहिंसा की साधना करने के लिए जीवन को बनाये रखना आवश्यक है । जीवन को बनाए रखने का मुख्य साधन खान-पान है । इस दशा में खान-पान की हिंसा अहिंसा का ही एक अंग बन जाती है - इस कोटि का चिन्तन भी प्रस्तुत किया जाता है । किन्तु यह अहिंसा की मर्यादा के प्रतिकूल है । भविष्य की अहिंसा के लिए वर्तमान की हिंसा अपना रूप नहीं त्यागती — अहिंसा के लिए की जानेवाली हिंसा अहिंसा नहीं बनती। 'मुनि अपने जीवन की सब प्रवृत्तियों में अहिंसा का विचार लिए चलता है । वह खान-पान के लिए भी हिंसा नहीं करता ।' अपने लिए बनाया हुआ भोजन नहीं लेता । उसकी भिक्षा नव-कोटि-परिशुद्ध होती है । 1 गृहस्थ के लिए इतना कठोर व्रत सम्भव नहीं । उसकी भूमिका भिक्षावृत्ति की नहीं होती । भिक्षा तीन प्रकार की होती हैं : 1 १. पौरुषघ्नी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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