________________
१६६
३. माया ४. लोभ
५. चुगली ६. निंदा
७. आरोपकरण घृणा - तिरस्कार
८.
६. कलह
१०. पक्ष का आग्रह
११. भय ।
शारीरिक वेग दूसरी कोटि के हैं । आयुर्वेद की दृष्टि से शारीरिक वेग (मल, उनका वेग रोकने से स्वास्थ्य की हानि रोकने के बारे में आयुर्वेद और धर्म
अहिंसा तत्त्व दर्शन
मूत्र आदि का वेग ) नहीं रोकना चाहिए । होती है । किन्तु इन मानसिक आवेगों को शास्त्र दोनों एकमत हैं ।
१. अहिंसक को क्रूर नहीं होना चाहिए । क्रोध क्रूरता लाता है, प्रेम का नाश करता है ।
२. अहिंसक नम्र होगा, उद्दण्ड नहीं । दूसरों को तुच्छ समझने की भावना हिंसा है । जाति, कुल, बल, रूप, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ और तप — ये आठ मद हैं । अहिंसक को इनका अहंकार नहीं करना चाहिए । उद्दण्डता से विनय नष्ट हो जाता है । उद्दण्डता जैसे हिंसा है, वैसे गुलामी और हीन भावना भी हिंसा है । अहिंसा का मर्म मध्यस्थ वृत्ति या संयम है । सफलता में उत्कर्ष और असफलता में अपकर्ष
- ये दोनों नहीं होने चाहिए। दोनों में सम रहना अहिंसा है। लाभ-अलाभ, सुखदु:ख, जीवन-मृत्यु, निंदा - प्रशंसा, मान-अपमान में जो समवृत्ति होता है, वही अहिंसक है । '
अहिंसक में विवेक होता है, इसलिए वह लाभ और अलाभ को सम नहीं मानता । किन्तु उसमें आत्माभिमुखता होती है, इसलिए वह दोनों स्थितियों में अपनी वृत्तियों को सम रख जाता है । अहिंसा आत्म-निष्ठा की उपासना है । हीन भावना के त्याग के लिए आत्मा की उपासना परम तत्त्व के रूप में होती है - 'जो परम तत्त्व है वह मैं हूं ।' अहंकार-त्याग के लिए उसकी उपासना समता के रूप में होती है— 'आत्मा मात्र समान है ।'
३. अहिंसक को काय ऋजु, भाषा- ऋजु, भाव ऋजु होना चाहिए। उसके
१. उत्तराध्ययन १६ - ६१ : लाभा लाभे सुहे दुखे, जोविए मरणे तहां ।
समो निंदापसंसासु, तहा मणावमाणओ ||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org