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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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३. युद्ध में मरने वाला स्वर्ग जाता है।
४. सारी सृष्टि मनुष्य के भोग के लिए है, वह सर्वोत्तम प्राणी है, आदिआदि मिथ्या विश्वास हैं।
अपुत्र की गति नहीं होती, 'युद्ध में मरने वाला स्वर्ग जाता है'—ये सामयिक अपेक्षाएं हो सकती हैं, अहिंसा-धर्म नहीं।
वैदिक विचार' से जैन विचार का यह मौलिक भेद है। मनुष्य सर्वोत्तम प्राणी है-यह सही है। सर्वोत्तम के लिए अल्पोत्तम की उपेक्षा की जाए, यह गलत है, हिंसा की दृष्टि है।
"हिंसा का अनिरुद्ध स्रोत चलता है, उसका आधार यही है कि मनुष्य अपने आपको सबसे ऊंचा मानता है। मनुष्य-हित के लिए सब कुछ किया जाना उचित है- इस मिथ्या धारणा के बल पर वैज्ञानिक प्रयोगों की वेदी पर लाखों-करोड़ों जीवों की बलि चढ़ती है। जीने का अधिकार सबको है। सुख-दुःख की अनुभूति सबको है। जीवन प्रिय और मृत्यु अप्रिय सबको है। इसको भुलाकर मूक जीवों की निर्मम हत्या करने वाले एक महान् सत्य से आँखें मूंदते हैं । खाद्य और विलास के लिए भी बड़ी-बड़ी हिंसाएं चलती हैं। सारी सृष्टि मनुष्य के लिए ही है। यदि पशु न मारे जाएं तो वे सारे जमीन पर छा जाएं-ऐसी धारणाएं हैं। उन्हें उखाड़ फेंके बिना जीव-दया का मूल्य नहीं बढ़ेगा।"
चारित्र का अर्थ है-विरति या संयम । यह आत्म-शोधन की निरोधात्मक प्रक्रिया है। इससे पूर्व-मालिन्य का शोधन नहीं होता किन्तु भविष्य के मालिन्य का निरोध होता है । आत्मा नए सिरे से अशुद्ध नहीं बनती।
पूर्व-मल-शोधन की प्रक्रिया तप है। जितनी भी निवृत्ति-संवलित प्रवृत्ति है अथवा मन, वाणी और कर्म का जितना भी अहिंसात्मक व्यापार है, वह सब तपस्या है। ये चारों (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप) समुदित दशा में मुक्ति के साधन हैं अतः इन चारों की समिष्ट ही अहिंसा का समग्र रूप है।
स्वास्थ्य-साधना
अहिंसक की वृत्तियां आवेग-रहित होनी चाहिए । आवेग हैं : १. क्रोध २. मान
१. (क) अपुत्रस्य गति स्ति।
(ख) हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम् ... २. जाया य पुत्ता न हवन्ति ताण'..
--उत्तराध्ययन १७
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