Book Title: Ahimsa Tattva Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 191
________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १. अनुकम्पा - दान —— गरीब, दीन-दुःखी को देना । २. संग्रह - दान - कष्ट - दशा में सहायता करने के लिए देना । ३. भय-दान - भयवश देना । ४. कारुणिक - दान - मृतक के पीछे देना । ५. लज्जा-दान- -लाज - शर्मवश देना । ६. गौरव - दान - कीर्ति के लिए देना । ७. अधर्म-दान- वेश्या आदि को देना । ८. धर्म-दान - संयमी व्यक्ति को देना । ६. कृतिमिति दान - अमुक ने सहयोग किया था, इसलिए उसे देना । १०. करिष्यति - दान - यह आगे सहयोग देगा इसलिए देना । दान के ये प्रकार बताकर आगमकार ने केवल वस्तु-स्थिति का निरूपण किया है। कौन - सा दान अच्छा या बुरा है - इसका विश्लेषण इसमें नहीं है । इनका मूल्यांकन समाजशास्त्र की दृष्टि से किया जाए तो 'अधर्म-दान' बुरा है और शेष दान कभी अच्छे माने जाते रहे हैं और कभी बुरे भी। समाज की धारणा स्वयं अस्थिर है, बदलती रहती है, तब इनका मूल्यांकन स्थिर कैसे होगा ? अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से धर्म-दान उपयोगी है । शेष उसके लिए उपयोगी नहीं है। उपयोगी नहीं- - इसका अर्थ यह नहीं कि वेश्या-दान और कीर्ति दान दोनों एक कोटि के हैं । तात्पर्य यह है कि आत्म-साधना से इनका कोई लगाव नहीं है । १७७ इन दस दानों को उपयोगिता की दृष्टि से बांटें तो धर्म-दान आत्म-साधना के लिए उपयोगी है । शेष में से कुछ समाज के लिए उपयोगी हैं और कुछ उसके लिए भी अनुपयोगी हैं । दान के स्वरूप में मिश्रण नहीं हो सकता । एक ही दान में सिद्धान्त की भाषा में पुण्य और पाप व व्यवहार की भाषा में सामाजिक उपयोगिता और आध्यात्मिक उपयोगिता - ये दोनों नहीं हो सकते । धर्म-दान के तीन प्रकार हैं : १. ज्ञान-दान, २. अभय-दान, ३. संयमी दान । ये तीनों आत्म-साधना के अंग हैं । ज्ञान-दान- - आत्म-साधना का सहायक ज्ञान देना, अहिंसक पद्धति से देना ज्ञानदान है । अभय-दान- मनसा वाचा कर्मणा छह काय के जीवों को मारने, मरवाने और मारने वाले को भला समझने का त्याग करना, प्राणीमात्र को भय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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