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अहिंसा की कुछ अपेक्षाएँ _ 'अहिंसा पोथी की चीज है' यह धारणा सौ में नब्बे की है। कुछ अंशों में सही भी है। अहिंसा के बारे में जितना लिखा गया, कहा गया, उपदेश दिया गया, उतना उसका आचरण नहीं हुआ। फिर भी अहिंसा जीवन में उतरी है। मनुष्य का सामाजिक रूप अहिंसा की भावना का एक छोटा प्रतिबिम्ब है। अनाक्रमण और भाईचारे का बर्ताव अहिंसा नहीं तो क्या है ? अगर मनुष्य हिंसा-परायण ही होता तो वह अपने को सामूहिक जीवन के ढाँचे में ढाल नहीं पाता।
मनुष्य का विवेक, विचारशीलता और बुद्धि का विकास देखते वह प्रश्न फिर आंखों के सामने आता है कि मनुष्य में अहिंसा की मात्रा कम है। उसे जितना अहिंसक होना चाहिए, उतना वह नहीं है। उसकी थोड़ी अहिंसा, अहिंसा जैसी लगती ही नहीं। हिंसक पशु भी भूख और भय से आक्रान्त न हों तो सहसा प्रहार नहीं करते। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि वे अहिंसक हैं। बहुत सारे पशुपक्षी सामुदायिक जीवन भी बिताते हैं। हिंसक पशु सामूहिक जीवन बिताने में रस नहीं लेते, फिर भी उनमें आपसी आक्रमण प्रायः नहीं होता। यही कारण है कि सामान्य स्थिति में अनाक्रमण, भाईचारा और सामूहिक जीवन-यापन से अहिंसा के परिणाम नहीं बनते, दूसरे शब्दों में इनसे उनकी उद्बुद्ध अहिंसा का परिचय नहीं मिलता।
आक्रमण को अनाक्रमण से जीते, यह अहिंसा का जागृत स्वरूप है; जिसकी मनुष्य जैसे बुद्धिमान् प्राणी से ही अपेक्षा की जा सकती है। पशु कार्य कर सकता है, उसका परिणाम नहीं सोच सकता। मनुष्य अतीत से शिक्षा ले सकता है और भविष्य की कल्पना कर सकता है। उसका कार्य इन दो शृंखलाओं से जुड़ा हुआ होता है। मनुष्य कार्य करते-करते लाभ-अलाभ, हित-अहित और इष्ट-अनिष्ट की चिन्ताओं से घिरा रहता है। इरा स्थिति में यह प्रश्न होता है कि क्या अभी तक मनुष्य अहिंसा का मूल्य आंक नहीं सका है अथवा उसे समझकर भी उसका आचरण करने में असमर्थ है ? दूसरी बात में हमारा मानसिक समाधान मिलता है।
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