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अहिंसा तत्त्व दर्शन
आत्म-विकास का लक्ष्य लेकर चलने वाला कहीं कष्ट पाए, गालियां सुने, मारा-पीटा जाए, फिर भी कतराता नहीं । वह सोचता है कि स्व-प्रशंसा और पूजा से मैं ऊंचा नहीं उठा तो इससे नीचा भी नहीं होऊंगा । ये दोनों पौद्गलिक जगत् के परिणाम हैं। मुझे आत्म-जगत् में जाना है । सुखी रहूं चाहे दुःखी, प्रशंसा सुनूं चाहे निन्दा, पूजा जाऊं चाहे पीटा जाऊं; इनसे होना जाना क्या है ? मेरा लक्ष्य मिलेगा - मेरी समता से । वह बनी रहनी चाहिए। अनुकूलता में राग या उत्कर्ष, प्रतिकूलता में द्वेष या अपकर्ष नहीं होना चाहिए। यही आत्म-बल है । विश्वविजेता मल्ल या योद्धा अपनी निन्दा सुनकर दुमना हो जाता है किन्तु अहिंसक नहीं होता । यो द्रा का लक्ष्य साधक के लक्ष्य से भिन्न है । सोचने की दृष्टि भी एक नहीं है | योद्धा सोचेगा, निन्दक ने मेरा अनिष्ट किया । साधक सोचेगा, मेरा निष्ट करने वाला कोई है ही नहीं । निन्दक अपने आप अपना अनिष्ट कर रहा है । यह अन्तर है लक्ष्य का । निन्दा के द्वारा योद्धा के लक्ष्य में बाधा आ सकती है किन्तु साधक के लक्ष्य में कोई बाधा नहीं आ सकती, इसलिए वह निन्दाकाल में भी समदृष्टि रह सकता है ।
३. लक्ष्य की निश्चितता से जैसे आत्मबल बढ़ता है, वैसे निर्भयता भी बढ़ती है । निर्भयता अहिंसा का प्राण है । भय से कायरता आती है । कायरता से मानसिक कमजोरी और उससे हिंसा की वृत्ति बढ़ती है । अहिंसा के मार्ग में सिर्फ अँधेरे का डर ही बाधक नहीं बनता, और भी बनते हैं। मौत का डर, कष्ट का डर, अनिष्ट का डर, अलाभ का डर, जाने-अनजाने अनेक डर सताने लग जाते हैं, तब अहिंसा से डिगने का रास्ता बनता है । पर निश्चित लक्ष्य वाला व्यक्ति नहीं डिगता । वह जानता है - ऐश्वर्य जाए तो चला जाए; मैं उसके पीछे नहीं हूं । वह सहज भाव से मेरे पीछे चला आ रहा है । यही बात मौत के लिए तथा औरों के लिए है । मैं सच बोलूंगा । अपने प्रति व औरों के प्रति सच रहूंगा । फिर चाहे कुछ भी क्यों न सहना पड़े ! अहिंसक को धमकियां और बन्दर - घुड़कियाँ भी सहनी पड़ती हैं। वह अपनी जागृत वृत्ति के द्वारा चलता है, इसलिए नहीं घबराता । इन सब बातों से भी एक बात और बड़ी है। वह है-कल्पना का भय । जब-तब यह भावना बन जाती है - अगर मैं ऐसे चलूंगा तो अकेला रह जाऊंगा, कोई भी मेरा साथ नहीं देगा, यह अहिंसा के मार्ग में कांटा है। अहिंसक को अकेलेपन का डर नहीं होना चाहिए । उसका लक्ष्य सही है, इसलिए वह चलता चले । आखिर एक दिन दुनिया उसे अवश्य समझेगी | महात्मा ईसा का जीवन इसका ज्वलन्त प्रमाण है । आचार्य भिक्षु भी इसी कोटि के महापुरुष थे। दूसरों के आक्षेप, असहयोग आदि की उपेक्षा कर निर्भीकता से चलने वाला ही अहिंसा के पथ पर आगे बढ़ सकता है । पिछली पंक्तियों में जो थोड़ा-सा विचार किया गया, उसका फलित यह
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