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अहिंसा तत्त्व दर्शन
नहीं उपजाना अभय-दान है। संयमी-दान-अतिथि यानी सर्वहिंसा-त्यागी, पचन-पाचन-निवृत्त, भिक्षा-जीवी
मुनि को शुद्ध और निर्जीव जीवन-निर्वाह के साधन देना संयमी
दान (अतिथि संविभाग) है। दया और दान-ये दोनों अहिंसा से जड़े हुए हैं। इन्हें बड़ी बारीकी से देखना होगा। पुराने मूल्यों को नए दृष्टिकोण से देखना होगा। एक युग में सामाजिक कर्तव्यों के पीछे पुण्य-पाप की प्रेरणा थी। इसलिए समाज के कर्तव्यों के साथ भी पुण्य-पाप का सम्बन्ध जुड़ गया। अब उस कल्पना में प्रेरकता नहीं रही है। वर्तमान का बुद्धिवादी मनुष्य सामाजिक कर्तव्य का मूल्यांकन उपयोगिता की दृष्टि से करता है ।
दान की इतनी महिमा हुई, वह एक विशेष प्रकार की सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है। जैसा कि दादा धर्माधिकारी ने लिखा है-'हमारे यहां सब शास्त्रों में इस विषय में जो कहा है, उसका आशय है-'दरिद्रान् भर कौन्तेय !'हे कौन्तेय ! दरिद्रों का भरण कर। ईसाई धर्म में कहा है-'अमीर को दान का मौका मिले, इसीलिए गरीबी का निर्माण किया है।' यह तो भगवान् पर वैषम्य
और नैघुण्य का दोष लगाने जैसा है। दान को प्राचीन विद्वानों ने संग्रह का प्रायश्चित माना है। प्राचीन संस्कृति और धर्म इस मुकाम तक पहुंचकर ठिठक गए। क्योंकि वे सब विषमता पर आधारित थे। मार्क्स ही वह पहला व्यक्ति हुआ जिसने कहा---'गरीबी-अमीरी भगवान् ने नहीं बनाई। यह नैसर्गिक तो है किन्तु अपरिहार्य नहीं है । नियति या विधि-विधान नहीं है, यह परिहार्य है।२।।
दान कोई सहज तत्त्व नहीं है । स्वयं-भूत तत्त्व है-असंग्रह। मुमुक्षु व्यक्ति कुछ भी संग्रह न करे। मुमुक्षु-वृत्ति का जागरण हो। उसकी मर्यादा है-अपनी आवश्यकताओं से अधिक संग्रह न करे। संग्रह करते रहना और दान देते रहनाइसका कोई अर्थ नहीं होता। वास्तविक दान असंग्रह है। श्री मोहनलाल मेहता ने लिखा है-'सच्चा त्यागी वह है जो पैसा जोड़कर त्याग नहीं करता अपितु पैसा छोड़कर त्याग करता है। जोड़कर छोड़ने की अपेक्षा पहले से ही न जोड़ना सच्चा त्याग है-वास्तविक दान है। जिसकी आपको आवश्यकता ही नहीं, उसका संग्रह क्यों करते हैं ? इसीलिए न कि आप इस संग्रह के दान से दानी कहलाएंगे। यह ठीक नहीं, इस प्रकार की आपकी मनोवृत्ति से समाज में विषमता फैलती है।'
१. व्रताव्रत चौपई ६।१६ २. नई क्रान्ति, पृ० २४
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