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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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कायस्थित्यर्थमाहार-मिच्छन् ज्ञानादिसिद्धये ॥ न वांछन् बलमायुर्वा, स्वाद वा देहपोषणम् । केवलं प्राणधृत्यर्थं, सन्तुष्टो ग्रासमात्रया ।। पात्रं भवेद गुणरेभिः, मुनिः स्वपरतारकः । तस्मै दत्तं पुनात्यन्नं, अपुनर्जन्मकारणम् ।।
__महापुराण, पर्व २० । १३६-१४५ इस प्रकार पचासों ग्रन्थों में पात्र-कुपात्र या अपात्र का विचार मिलता है किन्तु ध्यान रखिए-यह सब दान के प्रसंग में हुआ है। दान के लिए पात्र कौर और कुपात्र कौन, दूसरे शब्दों में दान का अधिकारी कौन और अनधिकारी को या दान के योग्य कौन और अयोग्य कौन ---यह चर्चा गया है। यह विचा अध्यात्म-दर्शन या धर्मशास्त्रों के द्वारा हुआ है, इसलिए सांसारिक दान की दृषि से अनुकम्पा की परिस्थिति में सभी प्राणी दान के पात्र, आज की भाषा में सह योग के अधिकारी माने गए हैं और मोक्षदान की दृष्टि से पात्र केवल संयमी मा गए हैं और असंयमी कुपात्र । तात्पर्य यह है कि असंयमी व्यक्ति मोक्षार्थ दान ले के अयोग्य हैं।
प्रायः सभी आचार्यों ने पात्र-कुपात्र का विवेचन करते हुए आध्यात्मिक गुरु को मा दण्ड माना है। वसुनन्दि-श्रावकाचार में लिखा है.---'जो सम्यक्त्व, शी और व्रत रहित है, वह अपात्र है। व्रत, नियम और संयम को धारण करने वार साधु उत्तम पात्र होता है।'
आदिपुराण में भी ऐसी ही व्यवस्था है-'पांच अणुव्रतों को पालने वाल सम्यक् दृष्टि मध्यम पात्र है, साधु उत्तम पात्र है और कुदृष्टि और शील रहि व्यक्ति पात्र नहीं है।' ___ एक दूसरी व्यवस्था और लीजिए-संयमी उत्कृष्ट पात्र है, अणुव्रती मध्य पात्र है, सम्यग् दृष्टि जघन्य पात्र है, सम्यग्दृष्टि नहीं किन्तु व्रती है, वह कुप है और जो न सम्यग्दृष्टि है, न व्रती है वह अपात्र है। मूल श्लोक पढ़िए:
'उत्कृष्टपात्रमनगारमणुव्रताढ्यं, मध्यं व्रतेन रहितं सुदृशं जघन्यम् । निदर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं,
युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं हि विद्धि ॥' अब आचार्य भिक्षु के विचार पर मनन करिए। वे कहते हैं. एकान्ततः सुर संयमी है। श्रावक यानी अणुव्रती सुपात्र भी है और कुपात्र भी। जितनी सीमा व्रती है, उतनी सीमा तक सुपात्र है और अव्रत की सीमा में वह कुपात्र है। सर दृष्टि सुपात्र भी है और कुपात्र भी। सम्यग्दृष्टि ज्ञान, तपस्या आदि गुणों
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