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अहिंसा तत्त्व दर्शन
अपेक्षा सुपात्र और दोष की अपेक्षा कुपात्र है। मिथ्यादृष्टि और अव्रती कुपात्र है। यह व्यवस्था व्यक्तिपरक नहीं, गुणपरक है। आत्म-गुण या निरवद्य प्रवृत्ति की अपेक्षा व्यक्ति को सुपात्र और आत्म-विचार या सावद्य प्रवृत्ति की अपेक्षा उसे कुपात्र कहा जाता है। असंयमी का खान-पान निरवद्य नहीं है। इसलिए वह खानपान की दृष्टि से संयमी नहीं है । इसे संयम की दृष्टि से परखिए। कोई उलझन नहीं होगी।
आचार्य भिक्षु के विचारानुसार कुपात्र का अर्थ है-असंयमी । असंयमी कुपात्र है और संयमी सुपात्र या ऐसे कहना चाहिए कि कुपात्र भाव का आधार असंयम है और सुपात्र भाव का आधार संयम । वे असंयमी के लिए कुपात्र शब्द का प्रयोग करते हैं :
'असंजती नै जीवां बचावियां, बले असंजती नै दियां दान।' 'कुपात्र जीवां नै बचावियां, कुपात्र नै दियां दान ।'
पहली गाथा में जिस अर्थ में असंजती-असंयमी शब्द का प्रयोग किया है, उसी अर्थ में इसकी अगली गाथा में कुपात्र शब्द का प्रयोग किया है।
पुरानो परम्परा
प्रश्न-प्यासे को पानी पिलाने से महान् उपकार होता है। पानी का मूल स्रोत है--कूप, तालाब आदि। इसलिए साधु इनकी खुदाई का उपदेश दे या
नहीं?
उत्तर-साधु को ऐसा उपदेश देना ठीक नहीं और न इनका निषेध करना चाहिए। ये दोनों सदोष हैं, इसलिए निषिद्ध हैं । जैसाकि आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन के पांचवें उद्देशक में कहा है-मुनि प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों की घात न करे । स्वतः अनाशातक -हिंसा न करने वाला दूसरों से हिंसा न कराने वाला और हिंसा करते व्यक्ति का अनुमोदन न करने वाला मुनि जैसे प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों को पीड़ा न उपजे, वैसा धर्म कहे। ___जो व्यक्ति लौकिक, कुप्रावचनिक और पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधु के दान की प्रशंसा करते हैं, कुएं और तालाब बनाने का समर्थन करते हैं तो इनमें पृथ्वीकायिक आदि जीवों की हिंसा होती है और यदि इनका निषेध करते हैं तो दूसरों के अन्तराय होता है। वह भी बन्ध-विपाक का कारण है। जैसा कि कहा है-जो दान की प्रशंसा करते हैं, वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं और जो उसका प्रतिषेध करते हैं, वे वृत्तिच्छेद करते हैं । इसलिए मुनि को उक्त दान तथा कूप, तालाब आदि का विधि-प्रतिषेध किए बिना शुद्ध दान की प्ररूपणा करनी चाहिए।
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