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अहिंसा तत्त्व दर्शन
१७१ मिलती है। मोक्ष-दान के लिए संयमी के सिवा और कोई सुपात्र नहीं माना जाता। आचार्य भिक्षु ने इसी तत्त्व को साफ-साफ और क्रान्त रूप में रखा। यह उनका प्रतिपाद्य विषय नहीं था कि गृहस्थों को एकान्त कुपात्र कहा जाए । उनके विचारों से मतभेद रखने वाले कुछ लोगों द्वारा ऐसा भ्रम फैलाया गया और व्यावहारिक बातें खड़ी कर लोगों को उलझाने की चेष्टाएं की गईं किन्तु सही स्थिति वैसी है नहीं।
पात्र-कुपात्र-विचार
सुपात्रायाप्यपात्राय, दानं देयं यथोचितम ।
पात्रबुद्ध या निषिद्धं स्याद्, निषिद्धं न कृपाधिया । ___ यह दिगम्बर पं० राजमल्ल का अभिमत है-'पात्र और अपात्र दोनों को यथोचित दान देना चाहिए किन्तु अपात्र को पात्र-बुद्धि से दान देना निषिद्ध है। उसे कृपा-बुद्धि या अनुकम्पा-बुद्धि से दान देना निषिद्ध नहीं है।' तात्पर्य यह होगा कि मोक्ष-दान के लिए जो अपात्र या कुपात्र है वह भी अनुकम्पा दान के लिए पात्र है। मोक्ष-दान का पात्र संयमी होता है। अनुकम्पा-दान का पात्र होता है-दीन, दुःखी, भूखा, प्यासा, रोगी, म्लान। आचार्य हरिभद्र के विचारानुसार :
सीलव्वयरहियाणं, दाणं जं दिज्जइ कुपत्ताणं ।
तं खलु धोवई वत्थं, रुदिरकयं लोहितेणेव ॥ शीलव्रत-रहित व्यक्ति कुपात्र हैं। उन्हें दान देना वैसा है, जैसे लहू से भरे कपड़े को लहू से धोना। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं :
सप्पुरिसाणं दाणं, कप्पतरुण फलाण सोहं वा ।
लोहीणं दाणं जइ, विमाण सोहासव्वस्स जाणेइ॥ सत्पुरुषों को दान देना कल्पतरु की भांति फल देने वाला है-शोभा लाता है। लोभी को दान देना मृतक की रथी की शोभा जैसा है।
अमृतचन्द्रसूरि के विचार पढ़िए : हिंसायाः पर्यायो लोभ:--लोभ हिंसा का पर्याय है-दूसरा नाम है। लोभी जो है, वह हिंसक है।
पिण्डनियुक्ति (४५५) में लिखा है :
२. रयणसार २६
१. हारिभद्रीय अष्टक अध्याय २१ । ३. अमितगति-श्रावकाचार
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