Book Title: Ahimsa Tattva Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 184
________________ १७० अहिंसा तत्त्व दर्शन लिए उसे दान की दृष्टि से कुपात्र यानी दान के लिए अयोग्य कहा जाता है । आचार्य भिक्षु ने गृहस्थ को एकान्ततः कुपात्र नहीं माना है । उसके जीवन को दो भागों में बांटा है—संयम - जीवन और असंयम- जीवन अथवा त्याग - जीवन और भोग - जीवन | संयम - जीवन की दृष्टि से गृहस्थ सुपात्र है और असंयम - जीवन की दृष्टि से कुपात्र । सूत्रकृतांग अध्ययन ११ में तीन पक्ष बताए हैं- धर्म, अधर्म और मिश्र [ धर्मअधर्म] सर्व-विरति संयमी धर्म पक्ष में आता है, असूयमी अधर्म पक्ष में, देशविरति जो व्रती और अव्रती दोनों में होता है वह मिश्र पक्ष में । श्रावक गृहस्थ के व्रत धर्म और अव्रत अधर्म होता है, इसीलिए उसे धर्मी- अधर्मी, संयमी - असंयमी व्रती -अव्रती और बाल - पंडित कहा गया है । व्रत की दृष्टि से श्रावक धर्मी, संयमी, ती और पंडित होता है और अव्रत की दृष्टि से अधर्मी, असंयमी, अव्रती और बाल । गृहस्थ या श्रावक का खान-पान असंयममय है, इसलिए वह स्वयं खाए या दूसरा उसे खिलाए, वह मोक्ष धर्म नहीं है । गृहस्थ स्वयं पाए या दूसरा उसे दे, मोक्ष धर्म नहीं है । आचार्य भिक्षु गृहस्थ जीवन की हिंसक प्रवृत्तियों की सुपात्रता स्वीकार नहीं करते, यह उनका मार्मिक दृष्टिकोण है । वे कहते हैं - जो लोग हिंसा की वृत्ति को सुपात्र मानते हैं, वे जिन-धर्म या वीतराग - मार्ग के अनजान हैं । गृहस्थ एकान्ततः सुपात्र हो कैसे सकता है ? हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह का सेवन करने वालों को एकान्त सुपात्र मानने वाले अंधेरे में हैं । एक प्राणी को मारने का त्याग करने वाला भी श्रावक हो जाता है । वह उसकी सुपात्रता है किन्तु Tata की जो हिंसामय प्रवृत्ति है, वह सुपात्रता नहीं हो सकती । गृहस्थ मात्र को एकान्ततः कुपात्र कहते हैं वे भी भूले जा रहे हैं । कहना होगा - उन्होंने आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण समझा नहीं । उन्होंने जयाचार्य की वाणी का मर्म नहीं छुआ । आचार्य भिक्षु और जयाचार्य ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की अपेक्षा गृहस्थ को सुपात्र ' और इनके अभाव की अपेक्षा उन्हें कुपात्र कहा है । इसका प्रमाण उन्हीं की रचनाएं दे रही हैं । पात्र-अपात्र या सुपात्र - कुपात्र की चर्चा भारतीय साहित्य में विपुल मात्रा में १. व्रताव्रत चौपई ४११८-२०, ३२-४० २ . वही ४।२० ३. वही ४।२३ ४. वही ४ । ३१ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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