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दान-मीमांसा
आचार्य भिक्षु ने कहा-'संयमी दान मोक्ष का मार्ग है और असंयमी दान संसार का ।' 'समुच्चय दान में धर्म है'.-ऐसा कहने वाले जिन-धर्म की शैली नहीं पकड़ सके। उन्होंने गाय और आक के दूध का मिश्रण कर डाला-आचार्य भिक्षु का यह मत था।' असंमी को दान दो, मत दो-यह उनका प्रतिपाद्य विषय नहीं था। देने वाला देता है, लेने वाला लेता है, उस समय साधु दान के गुण-दोष नहीं बताता। कारण यह है कि साधु किसी के अन्तराय देने का इच्छुक नहीं। तत्त्वचर्चा या तत्त्व-निरूपण के समय जो वस्तु-स्थिति है उसे प्रकट करना ही चाहिए।
असंयमी-दान को धर्म न मानना परोक्ष रूप में उसका निषेध नहीं तो क्या है ? स्थूल दृष्टि में कुछ ऐसी ही उलझन आती है ? पर आचार्य भिक्षु ने इसे बड़ी मामिकता से सुलझाया है। वे कहते हैं-असंयमी दान का निषेध करना और असंयमी दान को संसार-मार्ग या अशुभ कर्म-बन्ध का हेतु बताना एक बात नहीं है। निषेध वह होता है यदि दान देते को रोके या टोके । किन्तु पाप यानी अशुभ-कर्मबन्ध को अशुभ-कर्म-बन्ध कहा जाए, यह तो निर्मल ज्ञान है, है को है कहना है, वस्तु. स्थिति का सही स्वीकार है । साधु भिक्षा के लिए गया तब उसे एक घर में गाली
और आक्रोश मिला, दूसरे घर में अपने यहां आने का निषेध मिला। साधु गाली मिली, वहां फिर जा सकता है किन्तु निषेध किया, वहां नहीं जा सकता। इससे साफ होता है कि कठोर शब्द और निषेध दो वस्तुएं हैं।
असंयमी दान पाप या अशुभ कर्म-बन्ध का हेतु है तो कोई क्यों देगा? यह
१. व्रताव्रत चौपई : समचे दान में धर्म कहै तो, नहिं जिन धर्म सेली रे ।
___ आक ने गाय नो दूध अज्ञानी, कर दियो भेल सभेली रे॥ २. वही ३।१० ३. वही ३।१७,२६ ४. वही ३।३६,४०,४२,४३
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