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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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गुणस्थान मोह-विलय की क्रमिक दशाएं हैं। आस्रव और मोह का ज्यों-ज्यों विलय होता है, त्यों-त्यों आत्मिक गुणों का विकास होता चला जाता है। इनमें पहले तीन गुणस्थानों में निर्जरा, शुभ-अशुभ योग जनित पुण्य-पाप और मिथ्यात्वादि आस्रव जनित नैरन्तरिक पाप-ये सब होते हैं। ___ चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व आस्रव नहीं होता। शेष सब होते हैं। छठे में अविरति नहीं होती। प्रमाद आदि शेष सब होते हैं। सातवां अप्रमादी है। यहां से अशुभ-योग-जनित पाप-बन्ध रुक जाते हैं। दसवें गुणस्थान तक केवल नैरन्तरिक पाप-बन्ध होता है। ग्यारहवें से लेकर आगे वह सूक्ष्म अध्यवसाय-जनित नैरन्तरिक पाप भी नहीं होता। वहां तेरहवें तक केवल पुण्य-बन्ध और निर्जरा होती है तथा चतुर्दश गुणस्थान में केवल निर्जरा होती है। इन चौदह गुणस्थानों में यथोचित निर्जरा, पुण्य व पाप-इन तीनों के स्थान हैं । किन्तु एक प्रवृत्ति से पुण्य-पाप का कोई स्थान नहीं है। इसलिए पुण्य-पाप के निमित्तभूत योग को अमिश्र मानने पर कुछ भी बाधा आए-ऐसा नहीं लगता।
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