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अहिंसा तत्त्व दर्शन
१५६ क्यों? और यदि मांस-दान से मेघवाहन तीर्थंकर बना तो किसी भी स्थिति में मांस देने का निषेध क्यों ? परन्तु इन विरोधी प्रवृत्तियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि यह स्थिति अन्तर्द्वन्द्वका परिणाम है। एक ओर जैन-परम्परा मोहजन्य करुणा को धर्म साधना नहीं मानती थी, दूसरी ओर उसे धर्म मानने वालों का संख्या-बल प्रबल हो चुका था। जैन इन दोनों स्थितियों के बीच में थे। उनकी आन्तरिक श्रद्धा मोहजन्य प्रवृत्तियों (राग की परिणितियों) को धर्म मानने से इनकार करती थी और जनमत उन्हें इस ओर खींच रहा था । फलतः प्रारम्भ में वे कुछ झुके। उन्होंने अनुकम्पा-कृत कार्यों को अनिषिद्ध बताया। इसकी चर्चा हमें अनुकम्पा दान का भगवान् ने निषेध नहीं किया। इस रूप में अनेक ग्रन्थों में मिलती है। आगे चलकर यह पुण्य-स्कन्ध के रूप में प्रतिष्ठित हो गया । वर्तमान में कई जैन इसे धर्म-मोक्ष-साधना भी कहने लगे हैं।
जैन-धर्म आत्म-धर्म के सिवा और कुछ नहीं। सामाजिक प्राणी को व्यवहारधर्म चाहिए। वैदिक विद्वानों ने इस पहल को मुख्य बनाकर पूरा लाभ उठाया। जैनों को अपनी ओर खींचने लगे । दूसरे उन्होंने भक्ति-मार्ग का ऐसा स्रोत बहाया कि जनता उसमें बह चली । त्याग-तपस्यामूलक कठोर जैन-धर्म जनता से परे हो चला । जैन-आचार्य इस स्थिति से लड़ते रहे। आखिर उन्हें स्थिति से समझौता भी करना पड़ा । उसका संकेत हमें एक प्राचीन श्लोक में मिलता है।
वैदिको व्यहर्तव्यः, ध्यातव्यः परमः शिवः ।।
श्रोतव्यः सौगतो धर्मः, कर्तव्यः पुनरार्हतः ।। 'व्यवहार वैदिक धर्म का पालन करना चाहिए, ध्यान शैव पद्धति से करना चाहिए, बौद्ध-धर्म सुनना चाहिए और जैन-धर्म की आराधना करनी चाहिए।' सोमदेव सूरि ने लिखा है :
सर्व एवहि जैनानां, प्रमाणं लौकिको विधिः।
यत्र सम्यक्त्वहानि न, यत्र न व्रतदूषणम् ।। यह उसी स्थिति में लिखा गया है, जब जैनों पर दूसरे लोग यह आक्षेप करते कि ये व्यवहार को मानकर नहीं चलते। उन्होंने बताया कि जैन श्रावकों को वे सब लौकिक विधियां मान्य हैं, जिनसे सम्यक्त्व और व्रत में दोष न लगे।
उपाध्याय समयसुन्दर जी ने 'विशेष शतक' में हरिभद्र सूरि की 'आवश्यक वृहद्वृत्ति' का उल्लेख करते हुए बताया है कि श्रावक अन्य-दर्शनी को धर्म-बुद्धि से दान दे तो सम्यक्त्व में दोष लगता है। अनुकम्पा-बुद्धि से दे तो वह दूसरी बात है । उसका निषेध नहीं है। आगे चलते-चलते एक श्लोक उद्धृत किया है, उसका अर्थ है-'पात्र और अपात्र का विचार सिर्फ मोक्ष-दान के प्रसंग में होता है । दयादान का कहीं भी निषेध नहीं है। जगह-जगह यह लिखा गया है कि अनुकम्पा दान
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