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अहिंसा तत्त्व दर्शन
है । बौद्ध, वैदिक और जैन इन तीनों के पौराणिक चरित्रों में ऐसी अनेक बातें हैं, जिनका आपस में आदान-प्रदान हुआ है ।
मांस-दान की घटना जैन-धर्म की मौलिक मान्यता नहीं है । इसकी पुष्टि के लिए दूसरा प्रमाण लीजिए । एक और जैन परम्परा के पौराणिक आचार्य मांसदान की प्रवृत्ति को तीर्थंकर बनने का हेतु मानते हैं, दूसरी ओर दार्शनिक आचार्य महात्मा बुद्ध को कोसते हैं | आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं' - ' स्वमांसदानेन वृथा कृपालु : ' - यह आपेक्ष बुद्ध की मांस देने की प्रवृत्ति पर किया गया । इसी का विस्तृत रूप उनकी दूसरी रचना 'योगशास्त्र' (२1१ ) में मिलता है :
निपत्य ददतो व्याघ्रयाः स्वकायं कृमिसंकुलम् । देयादेयविमूढस्य, दयाबुद्धस्य कीदृशी ॥
'देय और अदेय का विवेक रखे बिना बुद्ध ने बाघिन को अपना मांस खिलाया वह कैसी दया ?"
आचार्य सिद्धसेन ने भी यही जताया है :
कृपां वहन्तः कृपणेषु जन्तुषु, स्वमांसदानेष्वपि मुक्तचेतसः । त्वदीयमप्राप्य कृतार्थ कौशलं, स्वतः कृपां सज्जनयन्त्यमेधसः ।
दूसरी बात यह है कि जैन आचार्य किसी भी स्थिति में मांस-दान को अनुचित मानते रहे हैं । जैसे :
न य अगणियमहुदाणं, सु कथए समयपडिसेहा ।
इसी के आगे 'तथाहि' और 'अन्यत्राप्युक्त' इनके द्वारा दो गाथाएं उद्धृत
की हैं :
तथाहि :
महुमज्ज मंस मूल, भेसज्ज सत्यग्गिजंतमंताई । न कथा विहु कायत्वा, सड्ढेहिं पापभीरुहि ॥ अन्यत्राप्युक्त :
न ग्राह्याणि न देयानि पंचद्रव्याणि पंडितैः ।
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अग्निविषं तथा शस्त्रं, मद्यं मांसं च पंचमम् ॥
इनका तात्पर्य यही है कि श्रावक को अग्नि, विष, शस्त्र, मद्य- मांस आदि का दान नहीं देना चाहिए ।
अब कुछ विचार करिए। यदि मांस-दान से मेघवाहन तीर्थंकर बनने की क्षमता पैदा करता है, तब महात्मा बुद्ध की मांस-दान की प्रवृत्ति की निन्दा
१. अयोगव्यवच्छेदिका ६
२. धर्मरत्न प्रकरण, विमल कथा १३
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