Book Title: Ahimsa Tattva Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 170
________________ १५६ अहिंसा तत्त्व दर्शन ग्रन्थ इसके विरुद्ध उनका समर्थन करते हैं, जिसका भगवान् महावीर ने प्रचुरविरोध किया। पुण्य-स्कन्ध का जो विचार ब्राह्मण परम्परा का अंग रहा, वही जैन-परम्परा में ऐसे आ घुसा कि आज मौलिक विचार तक पहुंचना कठिन हो रहा है । जैन-धर्म के उत्कर्ष में जैसे अहिंसा, तपस्या और अकिंचनता के विचारों ने जैनेतर धर्मों को प्रभावित किया, जिसे लोकमान्य तिलक जैसे विद्वानों ने भी स्वीकार किया है, वैसे ही वैदिक धर्म के उत्कर्ष में वैदिक विचारों ने जैन-धर्म पर प्रभाव डाला। उदाहरण के रूप में जातिवाद को लीजिए। भगवान् महावीर जन्मना जाति के विरुद्ध होने वाली क्रान्ति के मुख्य उन्नायक थे। सूत्रकृतांग, जो भगवान् महावीर के दार्शनिक दष्टिबिन्दु का प्रतिनिधि सूत्र है, में जातिवाद पर मार्मिक प्रहार किया गया। वीर-निर्वाण की अनेक शताब्दियों तक जैन-परम्परा जातिवाद से मुक्त रही, इसके खण्डन में बड़े-बड़े ग्रन्थों के पृष्ठ लिखे पड़े हैं। आगे चलकर स्थिति बदल गई। जैन-धर्म के अपकर्ष-काल में जातिवाद उस पर छा गया। आज जैनों के लिए यह समझना कठिन हो रहा है कि उनके महान् तीर्थंकर भगवान् महावीर जातिवाद के विरोधी थे। वही दशा पुण्य-स्कन्ध के विचार की है। सूत्रकृतांग जिसे पुण्य मानने का निषेध करता है, उसे आज बहुत से जैन पोषण दे रहे हैं। पड़ोसी धर्मों का एक-दूसरे पर असर होता है और अपने-अपने प्रभाव-काल में वे दूसरों पर अधिक असर डालते हैं-यह अस्वाभाविक नहीं। समन्वय की मनोवृत्ति के कारण कुछ जैनाचार्यों ने शाब्दिक समन्वय साधा तो कुछ ने व्यावहारिक रूप भी बदल डाला । जैनाचार्यों ने श्राद्ध को तत्त्वतः स्वीकार नहीं किया। शाब्दिक रूप में उसे जैन-साहित्य में स्थान मिला। अमितगतिश्रावकाचार में श्राद्ध की व्याख्या मिलती है। इसी प्रकार तर्पण का भी समन्वय किया गया। यह हमें नीतिवाक्यामृत' और यशस्तिलकचंपू में मिलता है। यह शाब्दिक समन्वय है। इनमें तत्त्व नहीं बदला । तत्त्व-विकार के कुछ नमूने देखिए--जो जैन-धर्म अपरिग्रह की मर्यादा को मुख्य मानकर चलता है, उसका एक अनुयायी भी यह विचार रखे कि सोने, चांदी, मूंगे और मोती की माला से जप करने से हजार उपवास जितना फल होता है। १. सूत्रकृतांग १।१।३१७,८,१०,११,१६; १।६।२७,२०३ २. नीतिवाक्यामृत पत्र २८९ ३. वही; पत्र २८६ ४. यशस्तिलकचम्पू, पत्र १०८ ५. भाव-संग्रह, देवसेनसूरि : सुवर्णरौप्यविद्व म-मौक्तिका जपमालिका। उपवाससहस्राणां, फलं यच्छन्ति जन्तवः।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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