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अहिंसा तत्त्व दर्शन गौतम ने पूछा- भगवन् ! बाल-पंडित मनुष्य क्या नैरयिक का आयुष्य बांधता है ? यावत् देवता का ?
भगवान् ने कहा—गौतम ! वह नैरयिक का आयुष्य नहीं बांधता, देवता का बांधता है।
गौतम-भगवन् ! इसका क्या कारण है ?
भगवान्-गौतम ! बाल-पंडित मनुष्य तथारूप श्रमण-ब्राह्मण से आर्य-धर्म का वचन सुनकर कुछेक हिंसा आदि से विरत होता, कुछेक से नहीं होता। कुछेक हिंसा आदि का प्रत्याख्यान करता है, कुछेक का नहीं करता। इसलिए वह देश-विरति होता है। वह कुछेक हिंसा आदि का प्रत्याख्यान करता है, उसी देश-प्रत्याख्यान के कारण वह नैरयिक का आयुष्य नहीं बांधता, यावत् देव-आयुष्य बांधता है। ____ अप्रत्याख्यान-मोह का क्षयोपशम होने पर सर्व-विरति होता है । यह साधुजीवन है। यह हिंसा-अहिंसा-संकुल नहीं है। इसमें भी प्रमाद-जनित हिंसा हो सकती है। अविरति की हिंसा, जो पांचवें गुण-स्थान तक सतत प्रवाहित रहती है और जीवन को निरन्तर हिंसा-संकुल बनाए रखती है, वह इसके नहीं होती। इसीलिए संयमी या सविरति के जीवन-निर्वाह के साधन संयममय होते हैं। अविरति या देश-विरति के जीवन-निर्वाह के साधन उस कोटि में नहीं आते। समूचे प्रपंच का सार दो शब्दों में है-वस्तु-वृत्ति के स्वरूप-भेद और काल-भेद की अपेक्षा एक व्यक्ति का जीवन हिंसा-अहिंसा-संकुल हो सकता है, किन्तु हिंसाअहिंसा, अविरति-विरति, पाप-पुण्य की कारक शक्ति संकुल नहीं हो सकती।।
बड़ी हिंसा को छोड़ छोटी हिंसा को करना—यह साधना का मार्ग नहीं है। साधना का अंश उतना ही है, जितना कि हिंसा का परित्याग। शेष जो हिंसा है, वह साधना नहीं है। हिंसा का अल्पीकरण होते-होते साधना का क्रम आगे बढ़ता है। आवश्यकता का बन्धन शिथिल होते-होते एक दिन चरम या परम कोटि की साधना प्राप्त हो जाती है। फिर संसार शेष नहीं रहता। सूत्रकृतांग के वृत्तिकार ने इसे कथंचित् आर्य और पारम्पर्य रूप में सब दुःख के क्षय का मार्ग और एकान्त सम्यक्त्व बतलाया है।
हिंसा और अहिंसा का विवेक
गुण-स्थान के आधार पर हिंसा और अहिंसा का विवेक कर लेना अच्छा होगा। यह सही है-वास्तविक हिंसा आत्म-दोष-जनित होती है। व्यावहारिक
१. भगवती १८
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