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जैन-दर्शन की समग्र दृष्टि और हिंसा-अहिंसा
विविध मान्यताओं के कारण धारणाएं संकुल बन जाती हैं-यह संस्कारप्रधान-वृत्ति है । जैन-दर्शन के विविध अंग गुण-स्थान, कर्मशास्त्रक्रियावाद, साधनाविधान आदि-आदि सभी का सार एक है-'अहिंसा या विरति मुक्ति-मार्ग है
और हिंसा या अविरति संसार-मार्ग।' प्रत्याख्यान मोह का क्षयोपशम होने पर भी पांचवें गुण-स्थान वाले व्यक्ति का जीवन देश-विरति होता है। वह कुछ विरत होता है, शेष अविरत रहता है। वह जो विरत-अविरत है यह तो स्थिति है।' इसका विवेक यह है, जितनी विरति उतना धर्म-पक्ष और जितनी अविरति उतना अधर्म पक्ष, इसलिए देश-विरति को सुप्त-जागृत, धर्माधर्मी, बाल-पंडित कहा जाता है। ये (बाल, पंडित आदि) जीवन के दो पक्ष हैं, किन्तु मिश्रण नहीं। विरतिअविरति-दोनों एक जीवन में होते हैं, किन्तु उनका स्वरूप एक नहीं होता। विरति की अपेक्षा व्यक्ति धर्मी और पंडित होता है और अविरति की अपेक्षा अधर्मी और बाल। यह संकुलता आधार की है, अध्यवसाय या प्रवृत्ति की नहीं। मनुष्य हिंसक-अहिंसक दोनों होता है, इसे कौन अस्वीकार करता है ? अस्वीकार इस बात का है कि हिंसा-अहिंसा का स्वरूप और उनकी कारण-सामग्री एक नहीं हो सकती । साधना-काल में पाप और पुण्य दोनों हो सकते हैं किन्तु साधना में पुण्य और पाप दोनों नहीं होते। तात्पर्य की भाषा में साधना का अर्थ है-विरति। विरति से पाप-बन्ध नहीं होता। प्रकारान्तर से ऐसे कहा जा सकता है कि विरति होती है, उसी से पाप-बन्ध रुकता है। अविरति जो शेष रहती है, उससे पाप का बन्ध नहीं रुकता। इसकी चर्चा भगवान् महावीर की वाणी में इस प्रकार है :
१. भगवती १६।६; १७।२ २. सूत्रकृतांग २।२।३२
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