Book Title: Ahimsa Tattva Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 169
________________ अहिंसा तत्त्व दशन जिक संगठन की मजबूत नींव नहीं डाल सका। इस्लाम-धर्म में विश्वास करने वाला जैन जैसे मुसलमान जाति के रूप में बदल जाता है, वैसे जैन-धर्म में विश्वास रखने वाले को जैन जाति के रूप में बदलना जरूरी नहीं होता। वैदिक धर्म में समाजव्यवस्था का पूरा स्थान है। इसलिए सामाजिक प्राणी के लिए वह अधिक आकर्षक है। जैन-धर्म समाज की व्यवस्था से सम्बन्ध जोड़कर चल भी नहीं सकता और न चलना चाहता भी है। क्योंकि इससे उसका धार्मिक रूप नष्ट होकर वह केवल समाज-व्यवस्था का नियामक मात्र रह जाता है। जैन-धर्म की आत्यन्तिक आध्यात्मिकता का कारण है--उसकी अहिंसा वति । वह धर्म के क्षेत्र में अहिंसा को ही एकमात्र परम तत्त्व मानकर चलता है। करुणा का क्षेत्र सामाजिक है। निषेधक रूप में करुणा धर्म से जुड़ी हुई है। जैसे-न मारना, न सताना, पशुओं पर अधिक भार न लादना, खान-पान में अन्तराय न डालना आदि-आदि । विधायक रूप में करुणा की कड़ी धर्म से जुड़ी हुई है भी और नहीं भी। आत्मा की पापमूलक प्रवृत्तियों को मिटाने के लिए जो रागहीन करुणा पैदा होती है, वह धर्म है । प्राणी की दुःख-दुविधाओं को मिटाने के लिए जो रागमय करुणा पैदा होती है, वह धर्म नहीं; समाज का उपयोगी, धारक या पोषक तत्त्व है। हिंसक या क्रूर समाज की अपेक्षा अहिंसक या कोमल भावना वाले समाज में करुणा का विकास अधिक होता है और ऐसा हुआ भी है। करुणा के इस सतत प्रवाही विकास ने जैन-धर्म की मौलिकता में विकार ला दिया। कालक्रम के अनुसार यह पुण्य और धर्म माना जाने लगा। जैन-विचार संयम पर विकसित हुए हैं। उनमें व्यक्ति, जाति या स्थिति की विशेषता नहीं है। जन्मना जाति के समर्थकों ने आर्द्र कुमार से कहा-'दो हजार स्नातकों को जिमाने वाला महान् पुण्य-स्कन्ध का उपचय कर स्वर्ग जाता है-यह वेदवाक्य है।' यह सुनकर आर्द्र कुमार बोले-'असंयमी ब्राह्मणों को जिमाने वाला नरक में जाता है।' __इसका यह अर्थ नहीं कि असंयमी को जिमाने वाला नरक में ही जाता है। इस तत्त्व को कटु-सत्य के रूप में रखा गया है। तत्त्व इतना ही है कि यह मोक्षधर्म या पुण्य का मार्ग नहीं है। विचार-परिवर्तन __ एक ओर जैन आगम उक्त विचारधारा देते हैं। दूसरी ओर उत्तरवर्ती जैन-. १. सूत्रकृतांग ३।४।६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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