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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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चले गए। इतना ही नहीं मगर अभी इसके जो शिष्य हैं, उनमें भी हिन्दू-धर्म के अनेक आचार-विचार प्रवेश कर गए हैं। इसी प्रकार से हिन्दू-धर्म के जिन देवीदेवताओं को जैनों में किंचित् मात्र भी स्थान नहीं था, उनमें उन देवी-देवताओं का प्रवेश हो गया । वेदान्त के प्रभाव से अनेक पारिभाषिक शब्द भी जैन - साहित्य में घुस गए हैं । भावनाओं और सामाजिक जीवन में भी जैन लोग हिन्दू-भाव स्वीकार करते जा रहे हैं ।'
भगवान् महावीर ने जातिवाद का घोर विरोध किया । आचारांग और सूत्रकृतांग में जाति के मिथ्या अभिमान को चूर करने वाली उक्तियां भरी पड़ी हैं । फिर भी आज के बहुसंख्यक जैन जातिवाद को अपनी बपौती की वस्तु माने बैठे हैं | श्वेताम्बर और दिगम्बर के आचार्य जातिवाद के खण्डन में प्रकरण के प्रकरण लिख चले । उन्हीं के अनुज जातिवाद के पोषक बन गए और जैन - साहित्य में स्पृश्य-अस्पृश्य की व्यवस्था भी घुस आयी । '
'श्रद्धा, तर्पण, गोमय लेपन, शुद्धि का अतिरेक आदि के विचार जैन परम्परा में घुस आए और उनसे वह विकृत बन गई ।'
जैन आगमों की टीकाएं भी मूलस्पर्शी नहीं रही हैं जैसा कि पं० बेचरदास ने लिखा है— 'हूं, सूत्रों नी टीकाओं सारी रीते जोइ गयो छू, परन्तु तेमां मने घणे ठेकाणे मूल नूं मूसल करवा जेवुं लाग्युं छै ।
उत्तरवर्ती साहित्य में तो बहुत ही विकार आया। जैन परम्परा का मूल रूप ढूंढ निकालना कठिन हो गया। परम्परा के विकारों के संकेत हमें पुरानी गाथाओं में भी मिलते हैं । एक आचार्य ने लिखा है- '
पण्डितैर्भ्रष्टचारित्रः, बठरैश्च तपोधनैः । शासनं जिन चंद्रस्य, निर्मलं मलिनीकृतम् ॥
- 'चरित्र - भ्रष्ट पंडितों ने जैन-शासन को मलिन बना डाला ।'
इसी प्रकार संचपट्टक की प्रस्तावना में अभयदेव सूरि का मत दर्शाते हुए प्रस्तावना - लेखक ने लिखा है - "आवी रीते वीर प्रभु थी एक हजार वर्ष पर्यन्त सरखी परम्पराए तेवा साधुओं नो सीधो कारभार चालू रह्यो – छतां भगवान् थी आठ सौ पचास वर्षे थोड़ाक यतियोए वीर प्रभु ना शासन थी बे दरकार बनी उग्र विहार छोड़ी चैत्यवास नी शुरूआत करी हती । पण मुख्य भाग तो वसतिवासीज रह्यो हतो अने ते भाग मां अग्रसर तरीके ओलखाता देवद्धिगणी क्षमाश्रमणे भाग
१. महापुराण १६।१८६
२. जैन साहित्य मां विकार थवा थी थयेली हानि, पृ० १२३
३. ग्रन्थ परीक्षा १, भाग ३, ले० जुगलकिशोर मुख्त्यार
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