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अहिंसा तत्त्व दर्शन
१५१ लोग समझें तो पाप कहना चाहिए। लोक-धर्म, लौकिक पुण्य और सामाजिक कर्तव्य के द्वारा समझे तो इन्हें व्यवहृत करना चाहिए । हमें तत्त्व देने से मतलब है । लोगों को भड़काएं, यह हमारा उद्देश्य नहीं है। समय के साथ-साथ शब्द-प्रयोग बदलता रहता है। आचार्य तुलसी ने मोह-दया आदि सामाजिक प्रवृत्तियों के लिए लौकिक पुण्य, लोक-धर्म आदि शब्दों का प्रयोग कर तत्त्व-मीमांसा का मार्ग सरल कर डाला। लोग कहते हैं-आचार्य श्री ने दया-दान में परिवर्तन कर डाला। यह सही भी है और नहीं भी। कुनैन जैसी कड़वी दवा और विष भी आवश्यकतानुसार दिए जाते थे, अब भी दिए जाते हैं। अन्तर इतना आया है कि पहले सीधा दिया जाता था और आजकल चीनी-लिप्त दिया जाता है। इसे हम कह सकते हैं कि परिवर्तन हुआ है और नहीं भी हुआ। यही बात आचार्यश्री की तत्त्व-निरूपण पद्धति के लिए समझिए। तत्त्व मूल का है। उसे जिस रूप में सुलभतया ले सके, भाषा वैसी
उठो और उठाओ-जागो और जगाओ
आचार्य भिक्षु ने भगवान् महावीर की वाणी का सार समझाते हुए कहाव्रत धर्म है, अव्रत अधर्म । त्याग धर्म है, भोग अधर्म । संयम-जीवन धर्म है, असंयम-जीवन अधर्म । पंडित-मृत्यु धर्म है, बाल-मृत्यु अधर्म । वीतराग-भाव धर्म है, राग अधर्म । अद्वेष-भाव धर्म है, द्वेष अधर्म ।
उन्होंने बताया -'जीना और मरना आत्मा की अमरता के दो पहलू है । जीना-मरना धर्म नहीं है, धर्म त्याग है। असंयमी जीवन और असंयमी मृत्यु की इच्छा करना अधर्म है। संयमी जीवन का संयमानुकूल पोषण करना धर्म है । असंयमी जीवन का पोषण करना धर्म नहीं है।" ___ 'जो जीव अव्रती है, छह काय की हिंसा करने का जिसे सर्वथा त्याग नहीं है, उसका जीवन असंयमी है। जिसने सर्व सावद्य-सर्व हिंसा का त्याग कर दिया उसका जीवन संयमी है।'२
आचार्य भिक्षु की सूत्र-वाणी के आधार पर आचार्यश्री तुलसी ने कहा--उठो और उठाओ-जागो और जगाओ। आचार्यवर के शब्दों में 'जीओ और जीने
१. अनुकम्पा चौपई ७६० २. वही ८।१७; १११४५, १२।७, ४२,६२, ६।३८
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