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अहिंसा तत्त्व दर्शन
दो – यह सिद्धान्त पारमार्थिक नहीं है । इसमें सिर्फ अधिकार की ध्वनि है । जीना परमार्थ नहीं । परमार्थ है जीवन को संयममय बनाना । जीने दो यानी मत मारो । मारने का तुम्हें अधिकार नहीं है । किन्तु, परमार्थ इससे आगे बढ़ता है । यह वह है - मत मारो, वह तुम्हारा गुण है, तुम्हारी अहिंसा या दया है, तुम्हारा कल्याण है । इससे उनका क्या बना ? उन्हें संयम का तत्त्व समझाकर संयमी बनाओ । इसमें तुम्हारा और उनका दोनों का कल्याण है । इसलिए यही परम पुरुषार्थ है ।
जैन परम्परा के आरोह-अवरोह
समय-चक्र के परिवर्तन के साथ धर्म - शासन में भी उतार-चढ़ाव आते हैं । धर्म का मौलिक रूप ह्रास से परे होता है, किन्तु उसके प्रकार की या अनुयायी वर्ग की सीमा का ह्रास या विकास होता रहता है । गहराई या मौलिकता की दृष्टि से धर्म का महत्त्व आंकने वाले विरले होते हैं । जन-साधारण अनुयायी वर्ग की संख्या के अनुसार धर्मं को बड़ा या छोटा मानते हैं। बाहरी मर्यादा में ऐसा भी होता है । अल्पसंख्यकों को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए बहुमत के सामने झुकना पड़ता है ।
इसके बाद कुमा
विक्रम की सहस्राब्दी तक जैन-धर्म जनता का धर्म रहा। रिल, आचार्य शंकर आदि आदि वैदिक विद्वानों के इतने तीव्र प्रहार हुए कि वह सिमटता - सिमटता नाम मात्र का रह गया । वौद्ध धर्म के उत्कर्ष काल में जैन-धर्म में कुछ शिथिलता आयी । अहिंसा की सीमा में करुणा को घुसने का कुछ मौका मिला। फिर भी उस समय जैन प्रभुत्व भी शक्तिशाली था, इसलिए वह उससे अधिक प्रभावित नहीं हुआ ।
वैदिक विद्वानों का प्रहार श्रमण परम्परा की मुख्य दो शाखाओं - जैन और बौद्ध पर था । सांख्य, जो श्रमण परम्परा का ही एक अंग था, वह अर्द्धवैदिक बन गया । बौद्ध भारत से बाहर चले गए। जैन धर्म का अपनी विशेषताओं के कारण अस्तिस्व मिटा नहीं किन्तु इसके बाद धीरे-धीरे उसमें विकार घुसते गए । जर्मन विद्वान् प्रो० हेमल्ट ग्लजनेप ने 'जैनिज्म' नामक पुस्तक में इस विषय पर बड़ा सुन्दर प्रकाश डाला है । वे लिखते हैं- 'वैदिक यज्ञकाण्ड के पुनरुद्धारक कुमारिल ने और मायावाद, ब्रह्मवाद के स्थापक महान् शंकर ने वेद धर्म विरोधी जैन-धर्म के विरुद्ध अपने तमाम शास्त्रीय शस्त्रों के द्वारा युद्ध किया और यह युद्ध धीरे-धीरे ऐसा बलवान् हुआ कि जैन धर्म को नम्रीभूत हो जाना पड़ा । दक्षिण भारत में वैष्णव और शैव सम्प्रदाय ने जैन धर्म पर भयंकर प्रहार किया ।'
'हिन्दू धर्म की विशिष्ट कला के कारण जैन-धर्म के अनेक शिष्य उस धर्म में
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