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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा । एस मग्गोत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं ।।
-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप—यह मार्ग है । क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद वर्णी ने इस पर बड़ा मार्मिक प्रकाश डाला है । वे अमृतचन्द्र सूरि के एक श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखते हैं
'अप्रादुर्भावः खल रागादीनां भवत्यहिसेति । तेषामेवोत्पत्ति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।
-पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय । निश्चय ही जहां पर रागादिक परिणामों की उत्पत्ति नहीं होती, वहीं अहिंसा की उत्पत्ति है और जहां रागादिक परिणामों की उत्पत्ति होती है, वहीं पर हिंसा होती है, ऐसा जिनागम का संक्षेप में कथन जानना।
यहां पर रागादिक से तात्पर्य आत्मा की परिणति-विशेष से है । पर पदार्थ में प्रीति-रूप परिणाम का होना राग तथा अप्रीति-रूप परिणाम का होना द्वेष और तत्त्व के अप्रीति रूप परिणाम का होना मोह अर्थात् राग, द्वेष, मोह-ये तीनों आत्मा के विकार भाव हैं। ये जहां पर होते हैं, वहा आत्मा कलि (पाप) का संचय करता है, दुःखी होता है, नाना प्रकार पापादि कार्यों में प्रवृत्ति करता है। कभी मन्द-राग हुआ, तब परोपकारादि कार्यों में व्यग्र रहता है, तीव्र राग-द्वेष हुआ, तब विषयों में प्रवृत्ति करता है या हिंसादि पापों में मग्न हो जाता है। कहीं भी इसे शान्ति नहीं मिलती। जहां आत्मा में राग-द्वेष नहीं होते, वहीं अहिंसा का पूर्ण उदय हो जाता है। अहिंसा ही मोक्ष मार्ग है-परमार्थ से देखा जाए तो जो आत्मा पूर्ण अहिंसक हो जाती है, उसके अभिप्राय में न तो पर के उपकार के भाव रहते हैं और न अनुपकार के भाव रहते हैं अतः न उनके द्वारा किसी के हित की चेष्टा होती है और न अहित की चेष्टा होती है।"
१. अनेकान्त, वर्ष ६, किरण ६, जून, १९४८
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