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अहिंसा तत्त्व दर्शन
इस स्थिति में संयमी किसे सराहे ? जो नहीं रोयी उसे सराहेगा, यह प्रत्यक्ष है । संसार का मार्ग भिन्न है और मोक्ष का मार्ग भिन्न ।
अनुकम्पा : दो रूप
अनुकम्पा हृदय का द्रवीभाव या कम्पन है । वह अपने-आप में बन्धन या मुक्ति कुछ भी नहीं है | मोहात्मक कम्पन बन्धन का और निर्मोहात्मक कम्पन मुक्ति का हेतु बनता है । पहला लौकिक है और दूसरा आध्यात्मिक । अनुकम्पा आध्यात्मिक ही होती है - ऐसा नियम नहीं । पौद्गलिक सुखपरक मानसिक एकाग्रता या ध्यान लौकिक होता है और आत्मपरक ध्यान आध्यात्मिक । ठीक यही बात अनुकम्पा के लिए है । भगवान् महावीर की वाणी में देखिए
अभयकुमार की अनुकम्पा कर उसके मित्र देव ने अकाल- वर्षा की । यह अनुकम्पा आत्मपरक नहीं है ।
दूसरा प्रसंग मेरुप्रभ हाथी का है। उसने खरगोश की अनुकम्पा के लिए अपना पैर नीचे नहीं रखा, कष्ट सहा, संयम किया, यह दया आत्मपरक है, मोहरहित है ।
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आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है :
'न मोहजन्यां करुणामपीश ! समाधिस्थाय युगाश्रितोसि ।' 'भगवन् ! आपने मोहजन्य करुणा को कोई स्थान नहीं दिया ।'
श्रीमद्जयाचार्य ने लिखा है- 'अनुकम्पा सावद्य निरवद्य नुं न्याय कहै छै - मोह राग थकी हियो कंपायमान हुवे ते सावद्य अनुकम्पा अनै वैराग थी हियो कंपायमान हुवै ते निरवद्य अनुकम्पा ।'
श्रीमद् रायचन्द्र लिखते हैं :
'हे काम ! हे मान ! हे संघ उदय ! हे वचनवर्गणा ! हे मोह ! हे मोहदया ! हे शिथिलता ! - तमेशा माटे अन्तराय करो छो ? परम अनुग्रह करी ने हवे अनुकूल थाव अनुकूल थाव' ।'
१. भिक्षु दृष्टांत १३०
२. ज्ञाता १
३. ज्ञाता १।२७
४. अयोगव्यवच्छेदिका १८
५. चर्चा रत्नमाला बोल २१२
६. तत्त्वज्ञान, पृ० १२६
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