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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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जीना चाहते हैं ।' इसलिए जीना धर्म है - यह नहीं होता । सब जीव भोग चाहते हैं, इसलिए किसी का भोग मत लूटो, यह उसका नैसर्गिक मूल्य है । भोग लूटना असंयम है, इसलिए भोग को मत लूटो - यह उसका धार्मिक मूल्य है । इसी प्रकार जीवन लूटना असंयम है, इसलिए जीवन मत लूटो - यह उसका धार्मिक मूल्य है । किसी का सुख न लूटना और दुःख न देना - यह संयम है ।
हंसा या संयम का मूल आत्मिक अहित का बचाव या आत्म-शुद्धि है । किसी की हत्या से निवृत्त होने का अर्थ उसके जीवन की इच्छा नहीं किन्तु हत्या से होने वाले पाप से बचने की भावना है । जीवन संयममय तभी सम्भव है, जब हमें यह भान हो कि दूसरे जीवों की घात करने से अपनी आत्मा की घात होती है ।
पूर्वोक्त विवेचन से यह मान लिया जाए कि राग से जो काम किया जाता है, वह अहिंसात्मक नहीं तो भी वह नियम परिचित व्यक्तियों पर ही लागू हो सकता है, सब जगह नहीं । जो अपरिचित व्यक्ति है, उसे न तो हम जानते हैं और न वह हमें जानता है । उस अपरिचित असहाय के हम भौतिक पदार्थों द्वारा सहायक बनें इसमें राग कैसे रह सकता है ? इसका उत्तर द्वेष पर दृष्टिपात करते ही हो जाता है । किसी एक अपरिचित विद्वान् की विद्वता पर असहिष्णुता आ जाती है, किसी एक अज्ञात व्यक्ति के सौन्दर्य को देखकर जलन पैदा हो जाती है । क्या वह द्वेष नहीं ? यदि है तो अपरिचित से द्वेष कैसे हो सका, जबकि राग नहीं हो सकता ? वास्तव में राग-द्वेष का परिचित एवं अपरिचित से सम्बन्ध नहीं है । किन्तु उनका जब तक आत्मा में अस्तित्व रहता है, तब तक वे अपने-अपने कारणों के द्वारा प्रकट होते हैं । साहित्य के ग्रन्थों का अध्ययन करने वाले भली-भांति जानते हैं कि अवीत
पुरुषों के सामने जिस प्रकार की सामग्री आती है, उसके अनुकूल भाव बनकर वैसा ही रस बन जाता है । शृंगार को उद्दीपन करने वाली सामग्री से शृंगार रस, करुणोद्दीपक सामग्री से करुण - इस प्रकार यथोचित सामग्री से हास्य, बीभत्स आदि सब रस बनते हैं । इसी प्रकार राग-द्वेषोद्दीपक सामग्री से राग-द्वेष का प्रादु
होता है । प्रायः दुःखियारी दशा को देखकर स्नेह और अनुचित व्यवहार को देखकर द्वेष पैदा हो जाता है। राग अनादिकालीन बन्धन है, उसका अमित प्राणियों से सम्बन्ध है । भौतिक जीवन को पोषण करने की भावना उस बन्धन का ही फल है । प्रत्यक्ष में हमें राग न भी मालूम देता हो पर अप्रत्यक्ष में वह सक्रिय रहता है और वही बाह्य क्रिया का जनक है । एक कवि ने स्नेह की परिभाषा करते हुए कहा है
दर्शने स्पर्शने वापि, भाषणे श्रवणे पि वा ।
यद् द्रवत्यन्तरंगं स स्नेह इति कथ्यते ॥
'देखने से, छूने से, बातचीत करने से, सुनने से जो हृदय द्रवित हो जाता
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