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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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___ शरीर के बिना संयम की साधना नहीं की जा सकती, इसलिए पहला अंश मिलता है किन्तु शरीर की प्रवृत्ति होने पर संयम हो-यह दूसरा अंश नहीं मिलता, इसलिए शरीर निरन्तर संयम का साधन नहीं रहता। शरीर-प्रवर्तक आत्मा है । उसके राग-द्वेष-रहित अध्यवसाय से जब शरीर प्रवृत्त होता है, तभी वह संयम का साधन बनता है। जो शरीर संयम का नैरन्तरिक साधन नहीं बना, उसके खान-पान आदि इस दृष्टि से संयममय माने जाएं कि वह आगे जाकर संयमी बनेगा, यह तर्क-संगत नहीं बनता। इसलिए संयम का अनन्तर साधन मोह कर्म का विलय ही है। उसके सहचरित जो संयम की प्रवृत्ति होती है, वह समता है और जो मोह के उदय से सहचरित होती है, वह प्रिय हो तो राग और अप्रिय हो तो द्वेष।
जीवन और मृत्यु संसार-परिक्रमा के दो अनिवार्य अंग हैं। ये दोनों कर्मबन्धन के परिणाम हैं। इनमें अच्छाई या बुराई कुछ भी नहीं है। ये अपने-आप में राग-द्वेष भी नहीं हैं, किन्तु ये प्राणियों की अन्तर-वृत्तियों के प्रतीक हैं। जीवन प्रियता का और मृत्यु अप्रियता का प्रतीक है। कहीं जीवन के लिए द्वेष और मृत्यु के लिए राग भी बन सकता है। किन्तु जीने की इच्छा राग और मृत्यु की इच्छा द्वेष-ये लाक्षणिक हैं। इनका तात्पर्य है-प्रियता की इच्छा राग और अप्रियता की इच्छा द्वेष और प्रिय-अप्रिय-निरपेक्ष संयम की भावना-वीतराग भाव है। ___ असंयमी जीवन की इच्छा करने से मुख्यतया तीन कारण हो सकते हैंस्वार्थ, मोह और अज्ञान। यों तो असंयमी जीवन की वह मनुष्य इच्छा करता है, जिसका असंयत पुरुषों के द्वारा कौटुम्बिक, सामाणिक एवं राष्ट्रीय स्वार्थ सिद्ध होता हो, या उसे वह मनुष्य चाहता है, जिसका असंयत व्यक्तियों के साथ प्रेमबन्धन हो या जो व्यक्ति तत्त्व की गम्भीरता तक नहीं पहुंचता। केवल भौतिक सुखों को सुख मानता है, वह असंयमी जीवन को चाहता है। जैसे स्वार्थ और मोह स्पष्टतया राग हैं, वैसे ही यह अज्ञान भी मोह का निविड़ रूप है, अतः यह भी राग है। जीवित रहना ही धर्म है-यह भ्रान्त धारणा मोहवशवर्ती मनुष्य के ही होती है। असंयत जीवों की मरने की इच्छा करने का कारण उद्वेग या विरोधी भावना है। वह तो द्वेष है ही। संयमी जीवन मृत्यु की इच्छा करना मध्यस्थ भावना हैअहिंसा का अनुमोदन है।
उक्त विवेचन से यह फलित हुआ कि असंयमी जीवन और मृत्यु हिंसायुक्त होने के कारण साधना की दृष्टि से अभिलषणीत नहीं। संयमी-जीवन और मृत्यु अहिंसामय होने के कारण वांछनीय हैं। संयमी-जीवन की इच्छा केवल इसीलिए की जानी चाहिए कि संयम की आराधना हो और संयमी-मृत्यु की वांछा भी इसी
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