________________
अहिंसा तत्त्व दर्शन
१४१
साधत - ये दोनों अहिंसात्मक हों, तब ही आत्म शुद्धि के साधन बन सकते हैं, अन्यथा नहीं । कष्ट-दशा में भी जो शान्त रहता है, वह अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाता है, इसलिए कष्ट-दशा से डरने की कोई बात नहीं है । उसका सामना करने का उचित मार्ग सीख लेना चाहिए और दूसरों को भी सिखा देना चाहिए । पशुओं को यह नहीं सिखाया जा सकता, यह सच है किन्तु हिंसा और अहिंसा के साधन समझने वालों और नहीं समझने वालों के लिए अलग-अलग नहीं होते ।
५. थोड़े से हिंसक जीवों को मार डालने से बहुत सारे जीवों की रक्षा होती है - ऐसा मानकर उन्हें नहीं मार डालना चाहिए ।' अहिंसा के राज्य में किसी के लिए किसी को, किसी भी दशा में मारने की बात आती ही नहीं । जो सहज करने की भूमिका में न हो उन्हें मारना पड़े, यह दूसरी बात है किन्तु इस मनुष्य-स्वभाव की दुर्बलता को धर्म का रूप नहीं मिलना चाहिए । इस विषय में महात्मा गांधी से सम्बन्धित प्रसंग मननीय है :
'एक बार महात्मा गांधी से प्रश्न किया गया कि कोई मनुष्य या मनुष्यों का समुदाय लोगों के बड़े भाग को कष्ट पहुंचा रहा है। दूसरी तरह से उसका निवारण न होता हो, तब उसका नाश करें तो यह अनिवार्य समझकर अहिंसा में खपेगा या नहीं ?"
महात्मा जी ने उत्तर दिया- 'अहिंसा की जो मैंने व्याख्या की है, उसमें ऊपर के तरीके पर मनुष्य-वध का समावेश ही नहीं हो सकता । किसान जो अनिवार्य नाश करता है, उसे मैंने कभी अहिंसा में गिनाया ही नहीं है । यह वध अनिवार्य होकर क्षम्य भले ही गिना जाए किन्तु अहिंसा तो निश्चय ही नहीं है ।”
'धर्म का मूल दया है, दया का मूल अहिंसा है और अहिंसा का मूल जीवनसमता है, इसलिए जो सभी जीवों को अपने समान प्रिय समझता है, श्रेय समझता है, वही धर्मात्मा है ।
आक्रान्ता को मारने की बात भी अहिंसा में नहीं समाती । समाजशास्त्र हिंसात्मक दण्ड- विधि को अपनाना आवश्यक माना है । आक्रान्ता के प्रति आक्रमण करने का विधान किया है । धर्मशास्त्र में इसके लिए कोई स्थान नहीं । उसका दण्ड - विधान अहिंसात्मक है, इसलिए समाज के सब विधि-विधानों का धर्म से अनु
१. पुरुषार्थ - सिद्ध्युपाय ८३ :
रक्षा भवति बहुनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति मत्वा कर्त्तव्यं, न हिंसनं हिंस्रसत्वानाम् ॥
२. अहिंसा, पृ० ५० ३. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org