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अहिंसा तत्त्व दर्शन
१३६.
दया नहीं है, किन्तुष्ट हिंसा है। इसे दया समझना मिथ्या ज्ञान है । एक समृद्ध व्यक्ति के लिए गरीबों का गला घोटना न्याय नहीं हो सकता । बड़े जीवों के लिए छोटे जीवों को मार डालने में दोष थोड़ा है और लाभ अधिक है — ऐसे सिद्धान्त अहिंसा के सनातन सिद्धान्त के प्रतिकूल हैं ।
बड़ों की सुख-सुविधा के लिए छोटे या क्षुद्र जीवों की हिंसा को क्षम्य मानने वाले प्रजा की सुख-सुविधा के लिए किए जाने वाले यज्ञों को धर्म या पुण्य नहीं मानते । प्रत्युत उनका विरोध करते हैं । इसका क्या आधार हो सकता है ? हजारों-लाखों मनुष्यों की सुख-शान्ति के लिए दस-बीस पशुओं की बलि का विरोध करते समय क्या वे अपने उक्त सिद्धान्त की अवहेलना नहीं करते ? भगवान् महावीर तथा महात्मा बुद्ध ने यज्ञ - बलि का विरोध किया, उनके अनुयायी आज भी करते आ रहे हैं । इसका आधार सर्व भूत-समता है, बड़ों के लिए छोटे जीवों का संहार नहीं । मनुष्यों की रक्षा के लिए क्षुद्र जीव-जन्तुओं की हिंसा को धर्मपुण्य मानने वाले यज्ञ-हिंसा का विरोध करें, यह न्याय नहीं हो सकता। जैनों को सोचना चाहिए कि बड़ों के लिए क्षुद्र जीवों की हिंसा में वे अल्प- पाप और बहुत धर्म मानकर किस दिशा की ओर चले जा रहे हैं ।
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महात्मा गांधी ने इस विचार की काल्पनिकता बताते हुए लिखा है - 'माणस ने मारी ने मांकड़ ने उगारवो ए धर्म होय, एवो प्रसंग पण आंववो शक्य होय छे । हूं तो एक बन्ने जात ना प्रसंग मां थी उवरी जावा नो मार्ग कहूं हूं । ते दया धर्म छे ।" 'बन्दर को मार भगाने में मैं शुद्ध हिंसा ही देखता हूं। यह भी स्पष्ट है उन्हें अगर मारना पड़े तो अधिक हिंसा होगी। यह हिंसा तीनों काल में हिंसा ही गिनी जाएगी।”
२. 'देवताओं के लिए भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। कई व्यक्ति कहते हैं कि धर्म के कर्त्ता देवता ही हैं अत: उन्हें मांसादि की बलि देने में दोष नहीं, यह कथन अविवेकपूर्ण है ।
इसी प्रकार पूज्य और अतिथि के लिए हिंसा करने में दोष नहीं है - यह कहना भूल है ।
१. नवयुग, अंक १७, पृ० १५६१, ता० २४ नवम्बर, १९२१
२. अपराधी जन्तु और गांधीजी, जैनभारती, मई, १९४८
३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४०५ : धर्मोहि देवताभ्यः प्रभवति, ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् । इति दुर्विवेककलितां घषणां न प्राप्य देहिनो हिंसा ॥
४. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय ८०, ८१ :
पूज्यनिमित्तं घाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति । इति संप्रधार्य कार्यं नाऽतिथये सत्त्वसंज्ञपनम् ॥
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