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अहिंसा तत्त्व दर्शन
मोदन नहीं हो सकता। गुरुदास बनर्जी ने इस बात को बड़े मार्मिक शब्दों में समझाया है:
'जान से मार डालने के लिए उद्यत आततायी को आत्म-रक्षा के लिए मार डालना प्रायः सभी देशों की सब समय की दण्ड-विधि द्वारा अनुमोदित है । मनु भगवान् ने भी कहा है-'नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन'-आततायी को मार डालने में मारने वाले को कुछ भी दोष नहीं होता।
भारत की वर्तमान दण्ड-नीति भी यही बात कहती है। लेकिन यह स्मरण रखना होगा कि दण्ड-विधि का मूल उद्देश्य समाज की रक्षा करना है, नीति-शिक्षा देना नहीं है। अतएव दण्ड-विधि की बात सब जगह सुनीति के द्वारा नहीं भी अनुमोदित हो सकती है।'१
६. बहुत जीवों को मारने वाले ये जीव जीते रहे तो बहुत पाप करेंगे-ऐसी अनुकम्पा करके भी हिंसक जीवों को नहीं मारना चाहिए।
पाप से बचाने की भावना निरवद्य है। इसके साधन भी निरवद्य होने चाहिए। मारने से पापी मिट सकता है, पाप नहीं मिटता। पाप मिटने का उपाय पापी के हृदय की शुद्धि है।
७. सुख की प्राप्ति कष्ट से होती है। मारे हुए सुखी जीव आगे सुखी होंगेइस भावना से सुखी जीवों को नहीं मारना चाहिए।'
कोई भी जीव दूसरे के प्रयत्न से अगले जीवन में सुखी या दुःखी नहीं बनता, वह अपने प्रयत्न से ही वैसा बनता है। इसलिए दूसरे जीव को सुखी बनाने के लिए मारना नितान्त मानसिक भ्रम है।
८. हिंसा की आग बलवान् और निर्बल दोनों के हृदय में हो सकती है। बलवान् से निर्बल को बचाने का अर्थ शक्ति के दुरुपयोग का प्रतिकार हो सकता है, हिंसा का प्रतिकार नहीं। हिंसा का प्रतिकार बलवान् और निर्बल दोनों को हिंसा-भावना छूटे, उसमें रहा हुआ है। __इसीलिए आचार्य भिक्षु ने कहा है-'ललचाकर या डरा-धमकाकर किसी को अहिंसक नहीं बनाया जा सकता। इसका मार्ग समझाना-बुझाना ही है । जबरदस्ती से हिंसक की हिंसा नहीं छुड़वाई जा सकती।'
१. ज्ञान और कर्म, पृ० २१२ २. पुरुषार्थ-सिद्ध युपाय: ८४
बहुसत्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरुपापम् ।
इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिंसाः ।। ३. वही, ८६ : कृच्छ्रण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव ।
इति तर्ककण्डलानः सुखिनां घाताय नादेयः ।।
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