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अहिंसा तत्त्व दर्शन
अतः अहिंसा का उपदेश करुणा की भावना से उत्पन्न न होकर संसार से पवित्र रहने की भावना पर आधारित है। यह मूलतः कार्य के आचरण से नहीं, अधिकतर पूर्ण बनने के आचरण से सम्बन्धित है। यदि प्राचीनकाल का धार्मिक भारतीय जीवित प्राणियों के साथ सम्पर्क में अकार्य के सिद्धान्त का दृढ़तापूर्वक अनुसरण करता था तो वह अपने लाभ के लिए, न कि दूसरे जीवों के प्रति करुणा के भाव से । उसके लिए हिंसा एक ऐसा कार्य था जो वर्ण्य था। ____ यह सच है कि अहिंसा के उपदेश में सभी जीवों के समान स्वभाव को मान लिया गया है परन्तु इसका आविर्भाव करुणा से नहीं हुआ है। भारतीय संन्यास में अकर्म का साधारण सिद्धान्त ही इसका कारण है।
आचारांग सूत्र में (ईसा पूर्व ४-३) अहिंसा का उपदेश इस प्रकार दिया गया है :
भूत, भावी और वर्तमान के अर्हत् यही कहते हैं-किसी भी जीवित प्राणी को, किसी भी जन्तु को, किसी भी वस्तु को, जिसमें आत्मा है, किसी भी प्राणी को मारे नहीं, अनुचित व्यवहार न करे, अपमानित न करे, कष्ट न दे और सताए नहीं। धर्म का यही पवित्र, नित्य और मान्य उपदेश है कि जिसे जगत् के ज्ञाता सिद्ध पुरुषों ने घोषित किया है।
कई प्रकार से तो ऐसा भी होता है कि इस अहिंसा के प्रति बाध्यतापूर्ण अनुसरण की अपेक्षा इसे तोड़ देने में अधिक करुणा-भाव की पूर्ति होती है। जब एक जीवित प्राणी के दुःखों को कम नहीं किया जा सके तो दयापूर्वक उसे मारकर उसके जीवन का अन्त कर देना अलग खड़े रहने से कहीं अधिक नीतिपूर्ण है। जिस पालतू जानवर को हम नहीं खिला सकते, उसे भूख के कष्टादायक मरण की अपेक्षा हिंसा द्वारा कष्ट-रहित शीघ्र अन्त कर देना अधिक करुणापूर्ण है। हम बार-बार अपने को ऐसी स्थिति में पाते हैं, जहां यह जरूरी होता है कि हम एक जीवन को बचाने के लिए दूसरे जीवन का नाश या हनन करें।
अहिंसा स्वतंत्र न होकर करुणा की भावना की अनुयायी होनी चाहिए। इस प्रकार उसे वास्तविकता के व्यावहारिक विवेचन के क्षेत्र में पदार्पण करना चाहिए। नैतिकता के प्रति शुद्ध भक्ति उसके अन्तर्गत वर्तमान मुसीबतों का सामना करने की तत्परता से प्रकट होती है।
परन्त पुन: कहना पड़ता है कि भारतीय विचारधारा-हिंसा न करना और किसी को क्षति न पहुंचना-ऐसा ही कहती रही है। तभी वह शताब्दितां गुजर जाने पर भी उस उच्च नैतिक विचार की अच्छी तरह रक्षा कर सकी, जो इसके साथ सम्मिलित है।'
१. इंडियन थाट्स एण्ड इट्स डेवलपमेंट, पृ० ७६-८४
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