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अहिंसा तत्त्व दर्शन
यह मानना पड़ता है कि दया की पूर्णता और अपूर्णता अपनी प्रवृत्तियों पर ही निर्भर है और इससे यह भी फलित होता है कि जीव-रक्षा या दया का सम्बन्ध अपनी सत्प्रवृत्ति से ही है। जो व्यक्ति अपनी बुरी प्रवृत्तियों का संयम करता है, प्राणी मात्र को अभय-दान देता है, वही जीव-रक्षक है और वही दयालु है।
सन्त तुलसीदास ने भी आत्म-दया की बड़े सीधे-सादे शब्दों में व्याख्या की है तथा नहीं मारने को दया बताकर अहिंसा और दया की एकता बताई है:
'तुलसी दया न पार की. दया आपकी होय ।
तू किण ने मारे नहीं, तो तनै न मारै कोय ॥' आचार्य भिक्षु ने दया का अर्थ बतलाते हुए यही लिखा है :
'जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हिंसा मत जाण । ___ मारण वाला ने हिंसा कही, नहीं मारे ते दया गुण खान ॥'
शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार ये दो हैं । जैसे-हिंसा न करना-अहिंसा और रक्षा करना-दया। तात्पर्यार्थ में दोनों एक हैं । अहिंसा निषेध-प्रधान है जैसेहिंसा मत करो-असत्-प्रवृत्ति का आचरणमत करो। दया विधि मुख है, जैसेपालन करो, रक्षा करो। हिंसा नहीं होगी, वहां जीव-रक्षा अपने आप हो जाएगी और जीव-रक्षा में हिंसा वर्जनी ही होगी। वही पहली बात है कि दयाशून्य अहिंसा और अहिंसाशून्य दया कभी नहीं हो सकती। महात्मा गांधी ने भी अहिंसा और दया का सम्बन्ध बतलाते हुए कहा है : ।
'जहां दया नहीं, वहां अहिंसा नहीं।' अत: यों कह सकते हैं कि जिसमें जितनी दया है उतनी ही अहिंसा है।'
अहिंसा और दया के उद्गम-स्रोत
हिंसा का क्षेत्र व्यापक है। असत्य आदि उसके अभिन्न पहलू हैं। असत्य बोलना हिंसा है, चोरी हिंसा है, मैथुन हिंसा है, परिग्रह हिंसा है। इन सबमें अहिंसा भी नहीं, दया भी नहीं। सामाजिक व्यवहार का सर्वोपरि धर्म करुणा है, अहिंसा नहीं। अतएव वहां अहिंसा और दया की परिभाषा सर्वथा एक नहीं रहती। उस क्षेत्र में उनका सम्बन्ध इस प्रकार बनता है :
अहिंसा में दया का नियम और दया में अहिंसा का विकल्प है। दया के बिना अहिंसा हो ही नहीं सकती, इसलिए अहिंसा में दया के होने का नियम है। सामाजिक क्षेत्र में दया के लिए हिंसा, असत्य, परिग्रह आदि भी प्रयुज्य माने जाते हैं, इसलिए दया में अहिंसा का विकल्प है। जहां दया के लिए हिंसा का आचरण
१. गांधी-वाणी, पृ० १७
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