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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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लिए हिंसात्मक साधन अपनाए जाएं वहां न संयम बना रहता और न हिंसा से बचाव होता है । इसलिए चौथा विकल्प भी आत्म-रक्षा की भावना नहीं देता।
पांचवें विकल्प में साधन-पद्धति को छोड़ शेष अहिंसा की दृष्टि के अनुकूल नहीं हैं।
छठे विकल्प में कष्ट से बचाव करने और सातवें में जीवन को बनाए रखने की बात मुख्य होती है, इसलिए ये भी अहिंसा के शुद्ध रूप का निर्माण नहीं करते। इन दो (छठे और सातवें) और पांचवें विकल्प को व्यावहारिक या सामाजिक अहिंसा कहा जाता है।
आठवां विकल्प अहिंसा का पूर्ण शुद्ध रूप है ।
राग और द्वष
असंजती जीव को जीवणों वंछे ते राग, मरणों वंछे ते द्वेष, तिरणो वंछे ते श्री वीतराग देव नो धर्म-भिक्षु स्वामी ने इस त्रिपदी में राग-द्वेष के स्वरूप का निरूपण एवं मध्यस्थ-भावना से धर्म का सम्बन्ध दिखाया है।
असंयम-हिंसा की अविरति और परिणति असंयम है । संयम-हिंसा की विरति और आत्मरूप में परिणति संयम है।
जो हिंसा की विरति भी न करे और उसकी परिणति भी न छोड़े, वह असंयमी है । स्थूल दृष्टि से हिंसक वह होता है जो किसी को मारे, और तब होता है जब मारे, किन्तु सूक्ष्म दृष्टि में एक व्यक्ति किसी जीव को अमुक समय नहीं मारता, फिर भी उससे मारने की विरति नहीं की, वह हिंसक है।'
जो अहिंसक है, हिंसा की अविरति की दृष्टि से या प्रवृत्ति की दृष्टि से, वही असंयमी है। उसका जीवन या शरीर टिका रहे-ऐसी भावना राग है । वह मिट जाए-ऐसी भावना द्वेष है। वह संयमी बने - यह भावना वीतराग का मार्ग हैसमता है।
राग-द्वेष जन्म-मृत्यु के कारण हैं, वीतराग-भाव शरीर-मुक्ति का। शरीरमुक्ति की साधना में शरीर टिका रहे या छूट जाए, यह उसकी शर्त नहीं होती। उसकी शर्त होती है-शरीर रहे तो संयम का साधन बनकर रहे और जाए तो संयम की साधना करते-करते जाए। इसीलिए कहा गया है-'असंयमी जीवन और मौत की इच्छा करो।२
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१. स्थानांग १ : सत्थमग्गी विसलोणं, सिणेहोखारमविलं ।
दुप्पउत्तोमणोवाया, काउभावोय अविरइ। २. सूत्रकृतांग ११३।४।१५
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