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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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आत्मा-रक्षा का अर्थ है—आत्म-मुक्ति । इसके साधन हैं :
१. धार्मिक उपदेश। २. मौन या उपेक्षा।
३. एकान्त-गमन ।' १. 'हिंसा करना उचित नहीं'--इस प्रकार हिंसक को समझाना, उसकी हिंसा
करने की भावना को बदलने का प्रयत्न करना-धार्मिक उपदेश है। २. धार्मिक उपदेश द्वारा प्रेरणा देने पर भी वह न समझे तो मौन हो जाना,
उसकी उपेक्षा करना—यह दूसरा साधन है। ३. धार्मिक उपदेश काम न करे और मौन न रखा जा सके, उस स्थिति में वहां
से हटकर एकान्त में चले जाना—यह तीसरा साधन है।
भगवान् महावीर ने हिंसा से बचने के लिए ये तीन साधन बताए हैं। ये तीनों अहिंसात्मक हैं, इसलिए आत्म-रक्षा की मर्यादा के अनुकूल हैं। हिंसात्मक साधनों द्वारा कष्टों से बचाव किया जा सकता है, हिंसा से नहीं।
हिंसक के प्रति हिंसा बरतना, बल-प्रयोग करना, प्रलोभन देना-यह अहिंसा की मर्यादा में नहीं आता। अहिंसा की मर्यादा वह है कि अहिंसक हर स्थिति में अहिंसक ही रहे । वह किसी भी स्थिति में हिंसा की बात न सोचे । अहिंसक पद्धति से हिंसा का विरोध करना अहिंसा-धर्मी का कर्तव्य है । वह अहिंसा के लिए अपने प्राणों तक का त्याग कर सकता है परन्तु अहिंसा के लिए हिंसा का मार्ग नहीं अपना सकता। दोनों प्रकार की रक्षा के आठ विकल्प बनते हैं :
१. जीवन को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव । २. संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव ।
३. जीवन को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव।
४. संयम को बनाए रखने के लिए हिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव । ५. जीवन के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव। ६. संयम के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा कष्ट से बचाव । ७. जीवन के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव । ८. संयम के लिए अहिंसात्मक पद्धति द्वारा हिंसा से बचाव । इनमें पहले चार विकल्प शरीर-रक्षा के हैं।
१. स्थानांग ३।३।७२ :- वृत्ति
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