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अहिंसा तस्व दर्शन ध्येय से होनी चाहिए कि संयम की आराधना करते हुए प्राणान्त हो । संयमीजीवन में कोई मोह नहीं, केवल संयम की आराधना की भावना है ! संयमी-मृत्यु में कोई उद्वेग नहीं, केवल असंयत अवस्था में न मरने का लक्ष्य है अत: वे भावनाएं राग-द्वेष रहित हैं। इस प्रसंग में आचार्य भिक्षु रचित कई गाथाओं का अध्ययन उपयुक्त है:
'जीने और मरने की इच्छा में धर्म का अंश भी नहीं। जो मनुष्य मोहअनुकम्पा करता है, उसके कर्म का वंश बढ़ता है यानी वह कर्म-बन्धन की परम्परा से मुक्त नहीं हो सकता।'
___ 'मोह-अनुकम्पा में राग-द्वेष रहता है। उससे पांच इन्द्रियों के शब्द, रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श, प्रमुख भोगों की वृत्ति होती है। अतः वह (मोह-अनुकम्पा) अहिंसा नहीं। इस तत्त्व को अन्तर्-दृष्टि से देखो।'
'अपने असंयम, जीवन की वांछा करना भी पाप है तो दूसरों के असंयम-जीवन की वांछा करने से कौन सन्ताप को मोल ले ? अज्ञानी जीव मरना और जीना वांछते हैं और सुज्ञानी जीव समभाव रखते हैं।'
'एक व्यक्ति ने अपने को मृत्यु से बचा लिया, किसी दूसरे ने उसको सहयोग दिया और किसी तीसरे व्यक्ति ने उसे अच्छा समझा-इन तीनों में मोक्ष कौन जाएगा?'
__'क्योंकि इन तीनों में से किसी के भी अविरति नहीं घटी और विरति के बिना मोक्ष की साधना नहीं हो सकती। इसका फलितार्थ यह है कि मोक्ष की साधना विरति (आशा-बांछा का त्याग करना) है। जीवित रहना न तो विरति है और न कोई अहिंसात्मक प्रवृत्ति ही। अतएव वहां धर्म या अहिंसा नहीं है । करना, करवाना और अनुमोदन करना, ये तीनों ऐक कोटि के हैं। जबकि अविरति युक्त जीवितव्य अहिंसा नहीं, तब उसे जीवित रहने में सहयोग देना और उसका अनुमोदन करना अहिंसात्मक कैसे हो सकता है ?'
'जो जीने की वांछा करता है, वह संसार में पर्यटन करेगा और जो श्रेष्ठ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का पालन करता है और जो दूसरों से उनका पालन करवाता है, वह परम पद यानी मोक्ष को प्राप्त करता है।'
'सब जीव जीना चहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । सब जीवों को सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय; इसलिए किसी को न मरना चाहिए और न कष्ट देना चाहिएयह उपदेश हिंसा-निवृत्ति के लिए है।'
'न मरना और न कष्ट देना'---यह अपनी आत्मा का संयम है। 'सब जीव जीना चाहते हैं'-यह जीवों की स्वाभाविक मनोवृत्ति का निरूपण है।' सब जीव
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