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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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१. कायिकी, २. आधिकरणिकी, ३. प्राद्वेषिकी, ४. पारितापनिकी,
५. प्राणातिपातिकी, कायिकी
शरीर से होने वाली असंयत प्रवृत्ति को कायिकी क्रिया कहते हैं । वह दो प्रकार की होती है-अनुपरत और दुष्प्रयुक्त । असंयम में प्रवृत्ति नहीं किन्तु निवृत्त भी नहीं, उस आत्मा की शारीरिक प्रवृत्ति 'अनुपरत कायिकी' कहलाती है। 'दुष्प्रयुक्त कायिकी' शरीर की दुष्प्रवृत्ति के समय होती है । यह संयति मुनि के भी हो सकती है । अविरति की अपेक्षा मुनि हिंसक नहीं होता। सर्व-पाप-कर्म की विरति करने वाला ही मुनि होता है। उसके प्रमादवश कभी दुष्प्रवृत्ति हो जाती है, वह हिंसा है। जो सर्व-विरति नहीं होते, वे अविरति की अपेक्षा से भी हिंसक होते हैं । हिंसा में प्रवृत्ति न करते समय प्रवृत्ति की अपेक्षा अहिंसक होते हुए भी अविरति की अपेक्षा अहिंसक नहीं होते।
इसी दष्टि से सर्व-विरति को पंडित और धर्मी, अपूर्ण विरति को बालपंडित और धर्माधर्मी तथा अविरति को बाल और अधर्मी कहा है। आधिकरणिकी
हिंसा के साधन-यंत्र, शस्त्र-अस्त्र आदि का निर्माण करना और पहले बने हुए यंत्र आदि को प्रयोग के लिए तैयार करना क्रमशः निर्वर्तनाधिकरणी और संयोजनाधिकरणी क्रिया कहलाती है । प्राद्वेषिकी
अपने आप पर या दूसरों पर अथवा दोनों पर द्वेष करना । पारितापनिकी
अपने आप को कष्ट देना, दूसरों को कष्ट देना या दोनों को कष्ट देना। प्राणातिपातिकी
अपनी घात करना, दूसरों की घात करना अथवा दोनों की घात करना। इस क्रिया-पंचक की अपेक्षा जीव सक्रिय और अक्रिय दोनों प्रकार के होते
एक जीव दूसरे जीव की अपेक्षा कदाचित् त्रिक्रिय होता है, कदाचित् चतुष्क्रिय
१. भगवती ११११४६ २. वही, १७।२
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