________________
७४
अहिंसा तत्त्व दर्शन
टिकाए रखने की इच्छा भी काम करती है। अर्थात् धार्मिक पुरुष भी हिंसा और अहिंसा के बीच मर्यादा बांधकर ही सन्तोष मानता है, पूर्णरूप से अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। ___ अध्यात्म-दर्शन जिन कार्यों को हिंसामय बताता है, उन्हीं को समाज अपनी परिधि में निर्दोष मानकर उन्हें करता है। इस सामाजिक आरोपवाद को महात्मा गांधी ने बड़े सुन्दर ढंग से समझाया है कि 'निरामिष आहारी वनस्पति खाने में हिंसा है' यह जानता हआ भी निर्दोषता का आरोपण कर मन को फुसलाता है।
अनिवार्य हिंसा का कटु सत्य रूप रखते हुए वे लिखते हैं--"यह बात सच है कि खेती में सूक्ष्म जीवों की अपार हिंसा है । कार्य मात्र, प्रवृत्ति मात्र, उद्योग मात्र सदोष है।"
- खेती इत्यादि आवश्यक कर्म शरीर-व्यापार की तरह अनिवार्य हिंसा है। उसका हिंसापन चला नहीं जाता है।
असंयमी दान, मोह-दया, सांसारिक उपकार आदि-आदि सभी लौकिक विधियों को इसी दृष्टि से तोलना होगा। समाज के लिए जो अनिवार्य है, वे होंगे जरूर किन्तु वे अनिवार्य होने मात्र से अहिंसा धर्म नहीं बन सकते।
आचार्य भिक्षु ने समाज की अनिवार्य स्थितियों को समझते हुए सिर्फ यही बताया कि 'सामाजिक आवश्यकता या अनिवार्यता को संसार का मार्ग समझो और दया--अहिंसा को मोक्ष का मार्ग ।'
हमें समाज और अध्यात्म के तत्त्वों और दृष्टि-बिन्दुओं को भिन्न-भिन्न मानते हुए चलना चाहिए । मार्ग साफ रहेगा। दोनों को एक मानकर चलें तो उलझन आएगी और अनात्मवाद बढ़ेगा। इसलिए बढ़ेगा कि अध्यात्मवाद संसार का विरोधी है और समाजवाद संसार का पोषक । समाजवाद यह पसन्द नहीं करेगा कि अध्यात्मवाद उसकी व्यवस्था में बाधा डाले । इसलिए वह उसे तोड़कर अकेला रहना चाहेगा । उचित यह है कि दोनों अपनी-अपनी मर्यादा में रहें, समाज के लिए दोनों का उपयोग है। संसार में रहने और सुख से जीने के लिए समाज का उपयोग है, शान्ति और समता की प्रतिष्ठा के लिए अध्यात्मवाद चाहिए। जिस प्रकार पं० नेहरू कहते थे-साम्यवाद और जनतंत्र दोनों एक साथ रह सकते हैं, वैसे ही हमें कहना चाहिए-अध्यात्मवाद और समाजवाद दोनों एक साथ रह सकते हैं। रूप दोनों के दो होंगे, भाषा दोनों की दो होंगी और भाव दो होंगे, फिर भी
१. अहिंसा-विवेचन, गुजराती से अनूदित । २. व्यापक धर्म-भावना, पृ० ३०८ ३. अहिंसा-प्रभावना, पृ० ३५,३६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org