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अहिंसा तत्त्व दर्शन सर्वोपरि महत्त्व नहीं देता। प्रवर्तक-धर्म में मानव के सामने और सब गौण होते है। दोनों का उद्गम एक नहीं है। इनमें स्वरूप, लक्ष्य और साधना का मौलिक भेद है।
धर्म का तुलनात्मक अध्ययन
भगवान् महावीर ने तीन प्रकार के व्यवसाय बतलाए हैं(१) लौकिक, (२) वैदिक, (३) सामयिक ।
लौकिक व्यवसाय के तीन भेद हैं-धर्म, अर्थ और काम । यहां धर्म शब्द का अर्थ है-समाज-कर्तव्य । अर्थ और काम जैसे लौकिक होते हैं, वैसे यह धर्म भी लौकिक है। मोक्ष-धर्म के तीन भेद-ज्ञान, दर्शन और चारित्र-सामयिक व्यवसाय के अन्तर्गत किए हैं। समाज-कर्तब्य के लिए 'लौकिक धर्म' शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में भी हुआ है। मनुस्मृति में जाति-धर्म, वैश्य-धर्म, कुल-धर्म, देशधर्म, राज्य-धर्म आदि अनेक प्रकार के धर्म बताए हैं। प्रमाण मीमांसा में आप्त यानी विश्वासी पुरुष के दो भेद हैं-लौकिक और लोकोत्तर । पौराणिक साहित्य में भक्ति तीन प्रकार की बताई है-लौकिक, वैदिक और आध्यात्मिक । आध्यात्मिक भक्ति को ही 'पराभक्ति' माना है । लौकिक
गाय के घी, दूध और दही, रत्न, दीप, कुश, जल, चन्दन, माला, विविध धातुओं तथा पदार्थों से कलित, अगर की सुगन्ध से युक्त एवं घी और गुग्गुल से बने हुए धूप, आभूषण, स्वर्ण और रत्न आदि से निर्मित हार, नृत्य, वाद्य और संगीत, सब प्रकार के जंगली फल-फूलों का उपहार तथा भक्ष्य, भोज्यादि नैवेद्य अर्पण करके मनुष्य ब्रह्माजी को उद्दिष्ट कर जो पूजा करता है, वह लौकिक भक्ति मानी गई है। वैदिक
ऋग् आदि वेद-मंत्रों का जप, संहिताओं का अध्यापन आदि कार्य ब्रह्माजी के उद्देश्य से किए जाते हैं, वह वैदिक भक्ति है।
१. स्थानांग ३।३।१८४ २. वही, ३।३ : लोगिए ववसाए तिविहे पन्नते, तंजहा–अत्थे, धम्मे, कामे। ३. वही, ३।३ : सामयिए ववसाए तिविहे पन्नते, तंजहा-णाणे, दंसणे,
चरित्ते। ४. मनुस्मृति ८४१
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