________________
११४
अहिंसा तत्त्व दर्शन
इसलिए जैसे-जैसे पचा सके, वैसे-वैसे तत्त्व देना चाहिए। मूल बात है कि तत्त्व को अन्यथा कहना ही नहीं चाहिए। यथार्थ रूप में उतना कहना चाहिए, जितना कहना अवसर के प्रतिकूल न हो, अलाभ न बढ़े।
सम्राट अकबर ने हीरविजय सूरीश्वर से पूछा- 'क्या आप सूरज और गंगा को नहीं मानते?' तब उन्होंने कहा-'हम मानते हैं, वैसा शायद दूसरे नहीं मानते। देखिए–सहज बात है, अपने प्यारे का वियोग होने पर लोग रोटी-पानी तक भूल जाते हैं। सूरज के वियोग में हम पानी तक नहीं पीते। क्या ऐसा प्यार कोई दूसरा करता है ? हम गंगा के पानी को गन्दा नहीं करते। उसमें अपना मल बहाने वाले उसे अधिक मानते हैं या हम ?'
पीपाड़ में एक चारण भक्त था। उसका नाम था गेबीराम। वह लोगों को लपसी खिलाया करता था। कुछ लोगों ने उसे भडकाया- 'तुम जो लपसी खिलाते हो, उसमें भीखणजी पाप कहते हैं।' वह तुरन्त आचार्य भिक्षु के पास आकर बोला-'भीखण बाबा ! मैं भक्तों को लपसी खिलाता हूं, उसमें क्या होता है ?' आचार्य भिक्षु ने कहा- 'लपसी में क्या डालते हो?' उसने कहा-'गुड़।' तब आचार्य भिक्षु ने कहा-'जितना गुड़ डाला जाता है, उतना ही मीठा होता है।' 'बहुत ठीक, बहुत ठीक'—यह कहकर वह चलता बना।
एक दूसरी घटना लीजिए-शोभाचन्द नामक एक व्यक्ति आचार्य भिक्षु के पास आकर कहने लगा-'आप भगवान् को उत्थापते (अस्वीकार करते) हैं ?'
आचार्य भिक्षु बोले-'हमने भगवान् की वाणी पर घर छोड़ा है, भला हम उन्हें कैसे उत्था ?'
उसने कहा-'आप देवालय को उत्थापते हैं ?'
आचार्य भिक्षु बोले- 'देवालयों का हजारों मन पत्थर होता है । हम तो सेर, दो सेर भी नहीं उठाते !' __उसने आगे फिर कहा-'आपने प्रतिमा उत्थाप दी। प्रतिमा को पत्थर कहते
तब आचार्य भिक्षु ने कहा-'हम प्रतिमा को क्यों उत्था ? हमें असत्य बोलने का त्याग है। सोने की प्रतिमा को सोने की कहते हैं, चांदी की प्रतिमा को चांदी की कहते हैं, सर्वधातु की प्रतिमा को सर्वधातु की कहते हैं, पाषाण की प्रतिमा को पाषाण की कहते हैं।' ऐसा सुन उसका आवेग शान्त हो गया।
यह उत्तर-पद्धति निरंकुश नहीं है। 'क्षेत्र, काल को समझकर चलाना चाहिए'--इस भगवद्-वाणी के सहारे ऐसी पद्धति चलती है ।
गुरु मन्त्र-द्रष्टा होते हैं । वे जानते हैं-किसे, कब, किस रूप में, कितना तत्त्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org