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अहिंसा तत्त्व दर्शन
शब्द-रचना में मत उलझिए
यह मत भूलिए, क्रान्ति की भाषा में ओज होता है और शान्ति की भाषा में समन्वय । समय-समय पर भाषा बदलती है । प्रयोजन लिए भाषा बदलती है । प्रयोग का विकास होते-होते भाषा बदलती है । तत्त्व न बदले, तो भाषा बदले और फिर बदले, उसमें दोष क्या ? कुछ भी नहीं । भगवान् पार्श्वनाथ जिसे वहिदान - विरमण कहते, उसे भगवान् महावीर ने अब्रह्म-विरमण और परिग्रहविरमण कहा । भाषा जरूर बदली किन्तु भाव नहीं बदला। वे स्त्री - त्याग और परिग्रह - त्याग को एक महाव्रत मानकर चले । भगवान् महावीर ने उन्हें दो महाव्रत बना डाला और दोनों के लिए दो नए शब्द दिए । 'धर्म' शब्द का इतिहास देखिए । जो एक दो अर्थ में व्यवहृत होता था, वह आज पचासों अर्थ लिए चल रहा है और वाद-विवाद का केन्द्र बन रहा है ।
भगवान् महावीर की वाणी में गति तत्त्व धर्म है तो मोक्ष साधना भी धर्म है । वे गांव, नगर की व्यवस्था को धर्म कहते हैं तो इन्द्रिय-विकारों को रोकने को भी धर्म कहते हैं । उन्होंने साधु के साथ धर्म जोड़ा तो पाप के साथ भी उसे छोड़ा नहीं ।
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इस पर चलिए -क्या शब्द एक है, इसलिए सबका तत्त्व एक होगा ? दूसरी ओर दृष्टि डालिए – क्या शब्द अनेक होने पर तत्त्व एक नहीं हो सकता ? सही समझिए - अपनी- अपनी मर्यादा में दोनों बातें बनती हैं। एक शब्द अनेकता में आ अनेक अर्थ बनाता है और अनेक शब्द एकता में आ एक तत्त्व की व्याख्या देते हैं । कई लोग शब्द - रचना में उलझ जाते हैं ।
वस्तुवृत्या यह उलझन शब्द प्रयोग का इतिहास और निक्षेप का तत्त्व न समझने का परिणाम है। मूल तत्त्व की सुरक्षा होनी चाहिए । आत्मा और शरीर को स्वस्थ रखते हुए परिस्थिति के अनुसार वेषभूषा बदलने का अधिकार है । यह सबको रहता है और रहेगा ।
विवेकशील उत्तर-पद्धति
भगवान् महावीर ने आचारांग में बताया है— उपदेश करते समय साधु को देखना चाहिए, सुनने वाले किस धर्म के अनुयायी हैं ? उनके विचार कैसे हैं ? क्षेत्र, काल, भाव की समुचित मीमांसा कर फिर धर्मोपदेश देना चाहिए । कारण साफ है । साधु का उपदेश लाभ के लिए होना चाहिए, लाभ वही आत्मकल्याण | साधु वैसा उपदेश करे जो लोग सुनना ही न चाहें, तब लाभ कैसे बढ़े ?
द्रव्य,
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