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अहिंसा तत्त्व दर्शन
छोड़ायां तो धर्म छ।' ___आचार्य भिक्षु ने स्थान-स्थान पर संसार रो मार्ग, लोक रो मार्ग, संसार रो उपकार, संसार रो काम, लौकिक दया, लोक रो छांदो, मुक्ति धर्म नहीं, मोक्षधर्म नहीं आदि-आदि शब्दों का व्यवहार किया। आज हम लौकिक कर्तव्य, लौक्कि उपकार, लौकिक दया, लौकिक धर्म, लौकिक पुण्य, लौकिक दान, आदि-आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनका आधार आचार्य भिक्षु के उपर्युक्त शब्द प्रयोग हैं ।
दया और दान लौकिक हो सकते हैं, उपकार और कर्तव्य लौकिक हो सकते हैं, देव और गुरु लौकिक हो सकते हैं तब धर्म और पुण्य लौकिक क्यों नहीं हो सकते?
शब्द-रचना की प्रक्रिया
शब्द का मूल अर्थ पाने के लिए जैन आगम हमें निरपेक्ष-विधि देते हैं। हम प्रयुज्यमान शब्द के दारा किस अर्थ को बताना चाहते हैं, इस व्यावहारिक धर्म को स्पष्ट करना निरपेक्ष का ही काम है। लोक-धर्म शब्द की योजना जो हमें आगम सूत्र और उनके उत्तरवर्ती साहित्य में मिलती है, का आधार निक्षेप-पद्धति ही है। लौकिक-पुण्य शब्द की रचना का आधार भी वही है। लौकिक-धर्म और लौकिकपुण्य शब्द मन-कल्पित या भ्रम में डालने वाले नहीं हैं। एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से पूछा-जो साधु व्रत नहीं पालते, साधु का वेश पहने हुए हैं, उन्हें आप साधु क्यों कहते हैं ? आचार्य भिक्षु ने उत्तर देते हुए कहा- जो साधुपन नहीं निभाता किन्तु साधु का नाम धराता है वह द्रव्य निक्षेप की दृष्टि से साधु ही कहलाएगा।'
धर्म शब्द के निक्षेप करते चलिए-(१) नाम-धर्म, (२) स्थापना-धर्म, (३) द्रव्य-धर्म, भाव-धर्म। द्रव्य-धर्म के दो भेद होते हैं—ज्ञात-शरीर-धर्म और भव्य-शरीर-धर्म । नो आगमतः द्रव्य-धर्म तद्व्यतिरिक्त कहलाता है। इस (नोआगमतः-तद्व्यतिरिक्त-द्रव्य-धर्म) के तीन भेद होते हैं -(क) लौकिक धर्म, (ख) कुप्रवाचनिक धर्म और (ग) लोकोत्तर धर्म। भाव-धर्म के दो भेद होते हैंआगमत: भाव-धर्म और नो-आगमत:-भाव-धर्म । नो-आगमतः-भाव-धर्म के तीन भेद होते हैं -लौकिक धर्म, कुप्रवाचनिक धर्म और लोकोत्तर धर्म । इस शब्द-रचना के लिए अनुयोग द्वार का निक्षेप प्रकरण द्रष्टव्य है । सूत्रकृतांग की नियुक्ति और वृत्ति में धर्म शब्द के निक्षेप इस प्रकार हैं___ 'धर्म के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-ये चार निक्षेप होते हैं ।२ नाम,
१. भिक्षु-दृष्टांत १८ २. सूत्रकृतांग नियुक्ति ६६-१०१
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