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अहिंसा तत्त्व दर्शन नहीं। शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति धर्म नहीं। राग या आसक्ति धर्म नहीं। क्रोध या द्वेष धर्म नहीं। मोह या अज्ञान धर्म नहीं। बड़ों के लिए छोटों को कुचल डालना धर्म नहीं! राज्य धर्म नहीं। समाज धर्म नहीं : व्यक्ति धर्म नहीं। जीना धर्म नहीं । मरना धर्म नहीं। पाना धर्म नहीं । खोना धर्म नहीं। एक शब्द में प्रेयस् धर्म नहीं। और बताया श्रेयस् धर्म है । त्याग धर्म है। तपस्या धर्म है । ज्ञान बढ़ेआत्मा जगमगा उठे, यह धर्म है। दर्शन बढ़े, श्रद्धा बढ़े, यह धर्म है। एक शब्द में अहिंसा धर्म है।
अहिंसा ही दान है, अहिंसा ही दया है। सूक्ष्म हिंसा का भाव भी दया नहीं है, दान नहीं है। कोई प्राणी नहीं मरता, कोई अन्याय नहीं होता, न समाज जिसे बुरा मानता है और न राज्य, फिर भी यदि यह राग या मोह की परिणति है तो अध्यात्म-दर्शन के अनुसार वह हिंसा है, अधर्म है, बन्धन है, अशुभ कर्म है, पाप है, संसार है, मोह है, आसक्ति है, लोक-विधि है, लोक-धर्म है, सामाजिक कर्तव्य है, लौकिक रीति-रिवाज है। किन्तु मोक्ष का मार्ग नहीं है, साधना का मार्ग नहीं है, मोक्ष-धर्म या आध्यात्मिक-धर्म नहीं है। आचार्य भिक्षु ने बताया कि समाज की आवश्यकताओं को धर्म की ओट ले पूरा करना दोहरी भूल है। यह रूढ़िवादी परम्परा पर तलवार बनकर चली । यह क्रान्ति का शंख स्थितिपालकों को चुनौती देते हुए बजा। आचार्य भिक्षु को विद्रोही घोषित किया गया। वे दान-दया के उत्थापक और भगवान महावीर की वाणी के निन्हव कहलाकर भी भगवद्-वाणी की सच्ची उपासना करने लगे।
वे क्रान्ति में खेले और क्रान्ति से जूझे। उनकी सत्य-निष्ठा, कठोरचर्या, अतर्य तितिक्षा और अदम्य उत्साह ने वातावरण को बदल डाला । आज भी वे प्रश्न नहीं मिटे, विरोध नहीं मिटा, फिर भी आचार्य भिक्षु की साधना और उनके शिष्यपरम्परा के जागरण का प्रभाव समझिए-हमारा अतीत का क्रान्तिकाल आज शान्तिकाल बनकर चल रहा है। हमें अपने सिद्धान्त की सचाई और स्थिरता में अडिग विश्वास है। हमें लगता है-युग हमारे साथ चल रहा है। आज से दो शताब्दी पहले आचार्य भिक्षु ने धर्म को जो व्यक्तिवादी रूप दिया था, वह रूप आज के समाज-तंत्र को भी मान्य हो रहा है। सामाजिक आवश्यकताओं को सामाजकि दृष्टि से सुलझाने का प्रयत्न ही आज तक के समाज-विकास का सबसे अन्तिम और सबसे स्वस्थ परिणाम है। व्यक्ति की पूंजीवादी मनोवृत्ति और अहं को पोषण देने वाली दान-परम्परा के लिए आज की समाज-व्यवस्था में स्थान नहीं है। दीनभाव को जन्म देने वाली प्रवृत्ति में अब धर्म या पुण्य कहलाने की क्षमता नहीं रही है।
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