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अहिंसा तत्त्व दर्शन १५. रोगी साधु-साध्वी की अग्लान और निःस्वार्थ भाव से सेवा करो।
१६. गण, गणी के सम्बन्ध को पुष्ट करो । गण के हित को अपना हित और अहित को अपना अहित समझो।
१७. गण के किसी भी अंग की उतरती मत करो। १८. दलबन्दी मत करो।
१६. यह गण सबका है, इसे अपना समझो और अपना-अपना दायित्व निभाओ।
१०. गुरु की दृष्टि को देलकर चलो, आदि-आदि।
आचार्य भिक्षु स्थितिपालक नहीं, सुधारक थे। उन्होंने परिवर्तन किए और ऐसे किए, जिनके लिए इतिहास के पृष्ठ खाली पड़े थे। भगवान् महावीर की शासन-व्यवस्था में सात पद थे। परम्परा से वे चले आ रहे थे। वे तब आत्मसाधना के पोषक थे किन्तु आज उनकी पोषकता समाप्त हो चली थी। वे साधनापथ को कंटीला बना रहे थे। आचार्य भिक्षु ने सारी चेतना आचार्य को सौंप दी। सात ही पदों का कार्य आचार्य में केन्द्रित कर दिया। ____ अपना-अपना चेला बनाने की जो प्रथा थी, उसकी जड़ ही काट दी। जिसतिस को मूड चेला बनाने वालों की उन्होंने पूरी खबर ली। 'चेला करण री चलगत ऊंधी,' 'विकलां नै मूंड किया भेला'-उनके ये प्रसिद्ध पद्य आग्नेय-अस्त्र से कम नहीं हैं। वे मतवाद और बाड़ाबन्दी के घोर विरोधी थे। मतवाद चलाने के लिए जो चलते हैं, चेला परम्परा बढ़ाते हैं, वे साधना से परे हैं--इस विचार को वे आत्मा-विश्वास के साथ प्रचारित करते रहे। आचार्य भिक्ष ने बाहर से संघ को बांधा और अन्तर में नीतिनिष्ठ बना उसे मुक्ति दी। एक व्यक्ति ने उनसे पूछा-'प्रभो! आपका यह संध कब तक चलेगा?' वे बोले-'जब तक साधुसंघ की नीति विशुद्ध रहेगी और आचार कुशल रहेगा, तव तक संघ को आंच भी आने वाली नहीं है।' वे शुद्ध विचार की आधारशिला शुद्ध आचार को मानते थे। आचार शुद्ध बने बिना विचार शुद्ध बन नहीं सकते। ये ही कारण हैं, उन्होंने आचार-शुद्धि पर अधिक बल दिया । उन्होंने विधान लिखा, उसका उद्देश्य बताया है-चारित्र शुद्ध पले और 'न्याय मार्ग चले', इसलिए मैंने यह उपाय किया है। वे आदि से अंत तक
कहो साधु किसका सगा, तड़के तोड़े नेह ।
आचारी स्यूं हिल मिल, अणाचारी नै छेह ।। इसी विचार के पोषक रहे। उन्होंने अपने जीवन-काल में १०५ शिष्य किए। ३७ शिष्य अलग हो गए या कर दिए गए, फिर भी वे शिथिल मार्ग पर
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