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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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को अपना उत्तराधिकारी चुना । तब संघ का एक विधान भी लिखा । साधुओं का दिल लिया और बदले में ये नियम दिए । जैसे
१. तेरापंथ गण एक आचार्य के नेतृत्व में रहे। २. शिष्य सब एक आचार्य के हों। ३. दीक्षा आचार्य के नाम से दी जाए।
४. विहार, चातुर्मास, धर्म-प्रचार आदि सब आचार्य के आदेशानुसार किए जाएं।
५. भावी आचार्य का निर्वाचन पूर्वाचार्य करें। ६. पुस्तकें संघपति के निश्राय में रहें, आदि-आदि।
उनके सम-सामयिक साधुओं ने भी ऐसा ही चाहा और इस नियमावली को सहर्ष अंगीकार किया।
साधु-संघ को आचार-कुशल रखने के लिए, शिष्य-लोलुपता को अपनी मौत मरने देने के लिए ऐसा विधान जरूरी था। विधान की पृष्ठभूमि में उन्होंने अनुशासन का वातावरण बनाया। वे कवि बनकर साधुओं के दिल तक पहुंचे और शासक बन दिमाग पर घूमे। उनकी शिक्षाएं और शासनाएं अमिट बन गई। उन्होंने जो कहा था--साधुओ ! साध्विओ !
१. नियम हृदय को साक्षी बनाकर पालो । २. संकोच ला कोई संघ में मत रहो। ३. स्वेच्छाचारित मत रखो। ४. नियमानुवर्ती बनो। ५. जो कुछ मन में आए, वह आचार्य को कह दो। ६. आचार्य कहे वह मानो, समझकर या श्रद्धा से । ७. आचार्य के कार्य-कलाप में हस्तक्षेप मत करो। ८. आपस में हेत रखो। ६. आचार से सम्बन्ध रखो, व्यक्ति से नहीं।
१०. किसी में दोष देखो तो तत्काल उसे जता दो, गुरु को जता दो, दूसरों को मत कहो।
११. बड़ों का सम्मान करो। १२. छोटों के साथ मृदु व्यवहार करो। १३. दैनिक कार्यों को बांट लो--बारी से करो।
१४. अपनी पांती का खाओ, पीओ, पहनो; पांती की जगह में बैठो, सोओ; पांती में सन्तोष मानो।
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