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अहिंसा तत्त्व दर्शन
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आध्यात्मिक
इसके दो भेद हैं-सांख्यज और योगज । सांख्यज-संख्यापूर्वक प्रकृति और पुरुष के तत्त्व को ठीक-ठीक जानना ।
योगज-प्राणायामपूर्वक ध्यान, इन्द्रियों का संयम और मन को समस्त इन्द्रियों के विषयों से हटाकर ब्रह्म-स्वरूप का चिन्तन करना। यही ब्रह्माजी के प्रति 'पराभक्ति' मानी गई है।
स्थानांग में दस प्रकार के धर्म बताए हैं:
१. ग्राम-धर्म-गांव का आचार या व्यवस्था अथवा विषय-भोग की अभिलाषा।
२. नगर-धर्म-नगर की व्यवस्था। ३. राष्ट्र-धर्म-राष्ट्र की व्यवस्था । ४. पाखण्ड-धर्म-श्रमणों का आचार। ५. कुल-धर्म-कुल की व्यवस्था । ६. गण-धर्म-गण की व्यवस्था । ७. संघ-धर्म-संघ की व्यवस्था । ८. श्रुत-धर्म । ६. चारित्र-धर्म। १०. अस्तिकाय-धर्म।
इनमें आत्म-संशोधक धर्म के सिवा गांव, नगर, राष्ट्र आदि के आचार, व्यवस्था आदि को धर्म कहा गया है। यशस्तिलकचम्पू में सोमदेवसरि धर्म के दो भेद मानते हैं -लौकिक और लोकोत्तर । इन्द्रनंदी-संहिता में भी धर्म के लौकिक और लोकोत्तर-ये दो भेद माने हैं। बाह्य-शुद्धि के लिए लौकिक और आभ्यन्तर-शुद्धि के लिए लोकोत्तर धर्म बताया है। दशवकालिक नियुक्ति में गम्य-धर्म, पशु-धर्म, पुरवर-धर्म, ग्राम-धर्म, गोष्ठी-धर्म, गण, राज्य आदि के धर्म को लौकिक धर्म कहा
__चार पुरुषार्थ में धर्म और मोक्ष अलग-अलग है। वे धर्म के दो रूप लोक-धर्म और मोक्ष-धर्म की ओर संकेत जताते हैं। लोकमान्य तिलक ने गीता-रहस्य (पृ० ६४-६६) में इसका सुन्दर विवेचन किया है। उसका कुछ अंश इस प्रकार है:
--'राजधर्म, देशधर्म, प्रजाधर्म, कुलधर्म, जातिधर्म, मित्रधर्म इत्यादि
१. पद्मपुराणांक (सृष्टि-खण्ड), पुष्कर तीर्थ की महिमा, पृ० ७८ २. स्थानांग १०७६०
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