Book Title: Ahimsa Tattva Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 114
________________ १०० अहिंसा तत्त्व दर्शन तल्लोकव्यवहाराय, पाणिग्रह-महोत्सवम् । विधीयमान भवतेच्छामि नाथ ! प्रसीद मे ॥ श्रीमद राजचन्द्र ने आत्म-हित की और शरीर-हित की बड़े मार्मिक शब्दों में विश्लेषणा की है। महात्माजी ने उनसे पूछा कि “सर्प काटने आए तो उस समय हमें स्थिर रहकर उसे काटने देना उचित है या मार डालना ?" श्रीमद् राजचन्द्र ने उत्तर दिया-'इस प्रश्न का मैं उत्तर दूं कि सर्प को काटने दो तो बड़ी समस्या आकर उपस्थित होती है। तथापि तुमने जब यह समझा है कि 'शरीर अनित्य है' यो फिर इस असार शरीर की रक्षार्थ उसे मारना क्यों उचित हो सकता है, जिसकी कि शरीर में प्रीति है, मोह-बुद्धि है ?' ___ 'जो आत्महित के इच्छुक हैं, उन्हें तो यही उचित है कि वे शरीर से मोह न कर उसे सर्प के अधीन कर दें। अब तुम यह पूछोगे कि जिसे आत्महित न करना हो, उसे क्या करना चाहिए? तो उसके लिए यही उत्तर है कि उसे नरकादि कुगतियों में परिभ्रमण करना चाहिए। उसे यह उपदेश कैसे दिया जा सकता है कि वह सर्प को मार डाले। अनार्य वृत्ति के द्वारा सर्प के मारने का उपदेश किया जाता है, पर हमें तो यही इच्छा करनी चाहिए कि ऐसी वृत्ति स्वप्न में भी न हो।' अध्यात्म-धर्म और लोक-धर्म का पृथक्करण आचार्य भिक्ष ने जो दष्टिकोण दिया उसमें समस्याओं का बौद्धिक समाधान सन्निहित है। इसलिए वे सही अर्थ में धर्मक्रान्ति के महान् सूत्रधार थे। समाजधारणा के और आत्म-साधना के धर्म को एक मानने के कारण जो जटिल स्थितियां पैदा होती हैं, उनका सही समाधान इनका पृथक्करण ही है। आज का बुद्धिवादी वर्ग इस विभाजन को बड़ी सरलता से मान्य करता है। पं० लक्ष्मण शास्त्री तकतीयं ने श्री हृ० कृ० मोहिनी के इस पृथकतावादी सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए लिखा है-"इस बंटवारे को हम भी पसन्द करते हैं। धर्म अर्थात् समाज-धारण के नियम अथवा सामाजिक जीवन के कानून-कायदे। ये कायदे समाज-संस्था के प्राण होते हैं। ये ही कायदे जैमिनी का कहा हुआ चोदना-लक्षण धर्म है। इसलिए पूर्व-मीमांसा समाज-धारणाशास्त्र है। आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग और मोक्ष का विचार करता है। उत्तर-मीमांसा अध्यात्मशास्त्र है। अध्यात्म वैयक्तिक होता है और धर्म सामाजिक । यज्ञ-संस्कार, वर्णाश्रम धर्म समाज-धारक धर्म है। समाज-धारणाशास्त्र और अध्यात्म-शास्त्र-उन दोनों की पूरी फारखती हो जानी चाहिए।"१ महात्मा गांधी भी राष्ट्र की नीति या व्यवस्था को धर्म का चोगा नहीं पहनाते १. हिन्दू धर्म समीक्षा, पृ०७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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