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अहिंसा तत्त्व दर्शन 'धर्म चरति धार्मिकः'- यहां धर्म शब्द का प्रयोग नीति-धर्म के अर्थ में है।
शुल्कशाला पर चुंगी लगती थी, उसे धर्म्य कहा जाता था-'शुल्कशालाया धयं शौल्कशालिकम्'—यहां धर्म शब्द का प्रयोग विधि-धर्म के अर्थ में है।
स्थानांग में दस प्रकार के श्रमण-धर्म का उल्लेख मिलता है। वे आत्म-धर्म के विभिन्न रूप हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं१. क्षमा
६. सत्य २. मुक्ति
७. संयम-त्याग ३. आर्जव
८. ब्रह्मचर्य ४. मार्दव
६. आकिंचन्य ५. लाघव
१०. शौच मनुस्मृति में भी दस प्रकार के धर्म उल्लिखित हैं१. धृति
६. इन्द्रिय-निग्रह २. क्षमा
७. धी ३. दम
८. विद्या ४. अस्तेय
६. सत्य ५. शौच
१०. अक्रोध संक्षेप में आत्म-धर्म के दो प्रकार हैं-श्रुत और चारित्र। श्रत और चारित्र ऐकान्तिक और आत्यन्तिक सुख के निश्चित उपाय हैं, इसलिए निरुपचरित धर्म हैं । सामाजिक सुख के अर्थ में धर्म शब्द उपचरित है।
आत्म-धर्म और लोक-धर्म
संयम और तपस्या, ये दोनों आत्म-धर्म हैं। अथवा ऐसे कहना चाहिए कि मुनिधर्म आत्म-धर्म है। मुनि आत्म-धर्म के लिए प्रवजित होता है। गृहस्थ का आत्मधर्म मुनि-धर्म का ही अंग है। वह उससे पृथक् नहीं है। अणुव्रत महाव्रत की ही स्थूल आराधना है।
आत्म-धर्म मोक्ष की साधना है और लोक-धर्म व्यवहार का मार्ग। मोक्ष की साधना में विश्वास नहीं करते, उनके लिए आत्म-धर्म और लोक-धर्म-ऐसे दो विभाग आवश्यक नहीं होते। किन्तु जो आत्मवादी हैं, संसार से मोक्ष की ओर प्रगति करना, बन्धन से मुक्ति की ओर जाना जिनका लक्ष्य है, वे संसार और मोक्ष की साधना का विवेक किए बिना चल ही नहीं सकते। मुनि केवल आत्म-धर्म की
१. स्थानांग १०७१३ २. मनुस्मृति ६।६२
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