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अहिंसा तत्त्व दर्शन
४. क्षमा आदि उत्तम गुण ।
डा० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार भारतवर्ष में एक ओर धर्म शब्द का अर्थ होता है— 'कठोर संयम के धारी महात्माओं के अनुभव और दूसरी ओर उन आध्यात्मिक सिद्धान्तों के अनुयायी समाज का पथ-प्रदर्शन करने वाले व्यावहारिक नियम । अर्थात् धर्म के दो रूप हैं - एक सैद्धान्तिक या आध्यात्मिक और दूसरा व्यावहारिक या सामाजिक ।"
सांख्य दर्शन में भी ऐसी व्यवस्था मान्य हुई है ।
बौद्ध प्रवचन में धर्म शब्द
बौद्ध-दर्शन में धर्म शब्द इन तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है :
१. स्व - लक्षण धारण ।
२. कुगति - गमन - विधारण ।
३. पांचगतिक संसार-गमन - विधारण ।
पहले में सास्रव और अनास्रव सभी कार्य धर्म कहलाते हैं । इसकी वस्तुस्वभाव धर्म के साथ तुलना होती है ।
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दूसरे में 'दश कुशल' को धर्म कहा गया है ।
तीसरे में धर्म का अर्थ है – निर्वाण |
अश्वघोष ने धर्म की द्विविधता को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है
'उत्तिष्ठ भोः क्षत्रिय ! मृत्युभीत ! वरस्व धर्मं त्यज मोक्षधर्मम् ।' यहां बुद्ध को मोक्ष-धर्म को छोड़ क्षात्र धर्म को स्वीकार करने की प्रेरणा दी जा रही है ।
गीता में जाति-धर्म, कुल-धर्म आदि प्रयोग मिलते हैं । अर्जुन ने धर्म का प्रयोग रीति-रिवाज के अर्थ में किया है।' कृष्ण ने धर्म का प्रयोग कर्तव्य के अर्थ में किया है । मनुस्मृति में दण्ड को धर्म कहा गया है :
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वाः, दण्ड एवाभिरक्षति । दण्डः सुप्तेषु जागति, दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ॥
महर्षि पाणिनि ने धर्म के दो अर्थ प्रस्तुत किए हैं— नीति-धर्म और विधि
धर्म |
१. परमात्म प्रकाश की प्रस्तावना, पृ० १००
२. सांख्यदर्शन ५।२५, सांख्यकारिका २३, माठर वृत्ति ।
३. गीता १।४३
४. वही, २।३२,३३ ५. मनुस्मृति ७।१८
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