________________
६२
अहिंसा तत्त्व दर्शन
नहीं हो सकती और मुक्ति के साधन से बन्धन नहीं हो सकता।
धर्म की शुभ वृत्त्यात्मक स्थिति में होने वाला बन्धन पुण्य का होता है। इस साहचर्य के उपचार से कहा जाता है कि धर्म से पुण्य होता है किन्तु वास्तव में धर्म मुक्ति का ही हेतु है, उससे बन्धन नहीं होता । पुण्य बन्धन है, इसलिए हेय है। नव पदार्थों में जीव और अजीव ज्ञेय, पुण्य, पाप, बन्ध और आस्रव हेय तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष-तीन उपादेय हैं। निश्चय दृष्टि में पुण्य और पाप दोनों हेय हैं, फिर भी मोह से प्रभावित व्यक्ति पुण्य को उपादेय मानते हैं और पाप को हेय । परम्परा से पुण्य मोक्ष का कारण बन सकता है, फिर भी वह न स्वयं उपादेय है और न उससे कुछ उपादेय कार्य सधता है। पाप भी मोक्ष के परम्पर कारण बन सकते हैं। इसीलिए योगीन्दु कहते हैं-'जिन कष्टों के कारण जीव में मुक्ति की भावना पैदा हो, वे कष्ट उन सुखों की अपेक्षा अच्छे हैं, जो जीव को विषय में फेंसाते हैं।' आत्म-दर्शन की जिज्ञासा को पुण्य और पाप दोनों पूर्ण नहीं कर सकते। इस परमार्थ-दृष्टि से वे दोनों समान हैं।
और क्या पुण्य की इच्छा करने से पाप का बन्ध होता है ! पुण्य की इच्छा करने वाला वास्तव में काम-भोग की इच्छा करता है। इसलिए पुण्य की इच्छा रखते हुए धर्माचरण करने का निषेध किया है। प्रवर्तक और निवर्तक धर्म : स्वरूप और फलित ___ राग-परिणति हिंसा है, द्वेष-परिणति हिंसा है, वीतराग-परिणति अहिंसा। हिंसा अधर्म है, अहिंसा धर्म । राग-द्वेष असंयम है, वीतराग भाव संयम। असंयम अधर्म है, संयम धर्म। धर्म प्रवृत्ति-रूप भी होता है और निवृत्ति-रूप भी। केवल प्रवत्ति ही हिंसा नहीं, निवृत्ति भी हिंसा होती है। केवल निवृत्ति ही अहिंसा नहीं, प्रवृत्ति भी अहिंसा होती है । आत्यन्तिक निवृत्ति शरीरमुक्त और कर्म-मुक्त दशा में होती है, इससे पूर्व प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों सापेक्ष होती हैं। एक कार्य में प्रवृत्ति होती है, दूसरे से निवृत्ति हो जाती है। राग-द्वेष में प्रवृत्ति होती है, वीतराग-भाव की निवृत्ति हो जाती है । वीतराग-भाव में प्रवृत्ति होती है, राग-द्वेष की निवृत्ति हो जाती है। राग-द्वेष की प्रवृत्ति और वीतराग-भाव की निवृत्तिदोनों अधर्म हैं, असंयम हैं। वीतराग-भाव की प्रवृत्ति और राग-द्वेष की निवृत्ति, ये दोनों धर्म हैं, संयम हैं।
आत्मलक्षी प्रवृत्ति विधायक अहिंसा है। संसारलक्षी या पर-पदार्थलक्षी प्रवृत्ति की विरति निषेधात्मक अहिंसा है। धर्म का आधार आत्मा और कर्म है।
१. उत्तराध्ययन २४।२६ : एयाओ पंच समिइयो, चरणस्स पवत्तणे ।
गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org