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अहिंसा तत्त्व दर्शन
पाप का फल नरक है। इन्हीं के द्वारा जन्म मरण की परम्परा चलती है । उसका कभी भी निरोध नहीं हो सकता। इस परम्परा में धर्म या पुण्य हेय नहीं है । इसमें धर्म का आधार शिष्ट समाजसम्मत आचार है । इसके धार्मिक विधान स्वर्गलक्षी हैं ।
दूसरी परम्परा निवर्तक धर्म की है । इसका साध्य मोक्ष है । इसमें धर्म और पुण्य एक नहीं है । धर्म आत्मा की शुद्ध परिणति है और पुण्य कर्म-वन्धन है । पुण्य बन्धन है इसलिए हेय है ।" पुण्य का फल स्वर्ग आदि शुभ-भोग है किन्तु वह मोक्ष का बाधक है । यह मोक्षार्थी के लिए वांछनीय नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द के ।' शब्दों में- 'पुण्य संसार - भ्रमण का हेतु है । जो इसकी इच्छा करते हैं, वे परमार्थ को नहीं समझते, मोक्ष मार्ग को नहीं जानते । " फल की दृष्टि से पुण्य और पाप में अन्तर है । पुण्य का फल शुभ-भोग है, पाप का अशुभ- भोग | किन्तु मोक्ष के साधन ये दोनों नहीं हैं, इसलिए पुण्य के फल भी तत्त्व - दृष्ट्या दुःख ही हैं । * चक्रवर्ती- पद की प्राप्ति आदि-आदि पुण्य के फल निश्चय दृष्टि से दुःख ही हैं ।" इसीलिए आचार्य योगीन्दु कहते हैं - 'हमारे पुण्य का बन्ध न हो, क्योंकि पुण्य से धन मिलता है, धन से मद होता है, मद से मति मोह और मति मोह से पाप ।" यह क्रम उन्हीं के होता है, जो पुण्य की इच्छा से धर्माचरण करते हैं । जो आत्म-शुद्धि के लिए धर्माचरण करते हैं, उनके अवांछित पुण्य का बंध हो जाता है । किन्तु वह व्यक्ति दिग्मूढ़ नहीं बनाता, फिर भी वह साधन जन्म-मृत्यु की परम्परा का ही है, मोक्ष का नहीं । जीव संसार भ्रमण करता है, उसका कारण शुभ-अशुभ कर्म ही है । मोक्ष शुभ-अशुभ कर्म नष्ट होने से ही होता है । कर्म से कर्म का नाश नहीं होता, कर्म का नाश अकर्म से होता है ।" मोक्ष तब हो जब नए कर्म, पुण्य और पाप, दोनों न लगे । प्रवर्तक-धर्म के अनुसार धर्म और पुण्य दोनों एक हैं । निवर्तक-धर्म में ये दोनों दो हो जाते हैं । पुण्य का अर्थ है, शुभ कर्म का बन्धन और धर्म का अर्थ है बन्धन -मुक्ति का साधन । ये दोनों परस्पर विरोधी हैं । बन्धन के साधन से मुक्ति
१. उत्तराध्ययन, २१।२४
२. शान्त सुधारस ७७
३. समयसार १६१
४. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा २००४
५. वही, गाथा २००५
६. परमात्मप्रकाश २।६०
७. सूत्रकृतांग १ -१२-१५ : न कम्मुणा कम्म खवेंति बाला ।
अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा ॥
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